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________________ { 104 सूत्र 8 मूल संस्कृत छाया [ अंतगडदसासूत्र तए णं सा पउमावई देवी अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा, निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियया अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, एवं वयासी - सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं से जहेयं तुभे वह जं नवरं देवाणुप्पिया ! कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि, त णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह । ततः खलु सा पद्मावती देवी अर्हतः अरिष्टनेमे: अन्तिके धर्मं श्रुत्वा, निशम्य हृष्टतुष्ट यावत् हृदया अर्हन्तम् अरिष्टनेमिं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा एवमवदत् - श्रद्दधे भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं तद् यथैतद् यूयं वदथ, यो विशेषः सोऽयम् देवानुप्रियाः ! कृष्णं वासुदेवं आपृच्छामि, ततः खलु अहं देवानुप्रियाणां अन्तिके मुंडा यावत् प्रव्रजामि । यथा सुखं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबंधं कुरु । अन्वायार्थ-तए णं सा पउमावई देवी = तदनन्तर वह पद्मावती महारानी, अरहओ अरिट्टणेमिस्स = भगवान अरिष्टनेमि के, अंतिए धम्मं सोच्चा, निसम्म = पास धर्मकथा सुनकर, समझकर, हट्ठतुट्ठ जाव हियया = अत्यन्त प्रसन्न हृदय होती हुई, अरहं अरिट्टणेमिं वंदइ नमंसइ, = भगवान नेमिनाथ को वन्दना नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्ता, = वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासी - = इस प्रकार बोली-, सद्दहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं से जहेयं तुब्भे = हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा रखती हूँ, जैसा आप कहते हैं (वैसा ही है ) । वयह = विशेष-, जं नवरं देवाणुप्पिया ! कण्हं वासुदेवं = हे देवानुप्रिय ! कृष्ण वासुदेव को, आपुच्छामि, तए णं अहं = पूछूंगी, तदनन्तर मैं, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव = देवानुप्रिय के पास मुंडित यावत्, पव्वयामि । = दीक्षा ग्रहण करूँगी । (प्रभु ने कहा-), अहासुहं देवाणुप्पिया ! = देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो करो, मा पडिबंधं करेह । = धर्म कार्य में विलम्ब मत करो। भावार्थ-इसके बाद वह पद्मावती महारानी भगवान नेमिनाथ से धर्मोपदेश सुनकर एवं उसे हृदय में धारण करके बड़ी प्रसन्न हुई, उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा। यावत् वह अर्हन्त नेमिनाथ को भावपूर्ण हृदय से वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोली “हे पूज्य ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा करती हूँ। जैसा आप कहते हैं वह तत्त्व वैसा ही है । आपका धर्मोपदेश यथार्थ है । हे भगवन् ! मैं कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर फिर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ।”
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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