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________________ पंचम वर्ग - प्रथम अध्ययन ] 103} कुमारी हो, भगवान अरिष्टनेमिनाथ, अंतिए मुंडे जाव पव्वइत्तए = के पास मुंडित यावत् दीक्षा लेना चाहता हो, तं णं कण्हे वासुदेवे विसज्जइ = उसको कृष्ण वासुदेव विदा करते हैं। पच्छाउरस्स वि य से अहापवित्तं = और दीक्षार्थी के पीछे कुटुम्बीजनों, वित्तिं अणुजाणइ, = की भी कृष्ण यथा योग्य व्यवस्था करेंगे।, महया इड्ढीसक्कारसमुदएण = वे पूर्ण ऋद्धिसत्कार के साथ उसका, य से णिक्खमणं करेइ, = निष्क्रमण (दीक्षा संस्कार) करायेंगे, दोच्चं पि तच्चं पि घोसणयं = दूसरी बार, तीसरी बार भी ऐसी, घोसेह, घोसित्ता = घोषणा करो, घोषणा करके, मम एवं आणत्तियं पच्चप्पिणह। = मेरी आज्ञा को वापस अर्पण करो।, तए णं ते कोडंबियपुरिसा = तब उन आज्ञाकारी पुरुषों ने, जाव पच्चप्पिणंति । = घोषणा कर आज्ञा वापस लौटाई। भावार्थ-अर्हन्त प्रभु के मुखारविन्द से अपने भविष्य का यह वृत्तान्त सुनकर कृष्ण वासुदेव बड़े प्रसन्न हुए और अपनी भुजा पर ताल ठोकने लगे। जयनाद करके त्रिपदी का छेदन किया। थोड़ा पीछे हटकर सिंहनाद किया और फिर भगवान नेमिनाथ को वंदन नमस्कार करके अपने अभिषेक-योग्य हस्ति रत्न पर आरूढ़ हुए और द्वारिका नगरी के मध्य से होते हुए अपने राजप्रासाद में आये । अभिषेक योग्य हाथी से नीचे उतरे और फिर जहाँ बाहर की उपस्थान शाला थी और जहाँ अपना सिंहासन था वहाँ आये। वे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान हुए फिर अपने आज्ञाकारी पुरुषों राज-सेवकों को बुलाकर इस प्रकार बोले-“हे देवानुप्रियो ! तुम द्वारिका नगरी के शृंगाटक यावत् चतुष्पथ आदि सभी राजमार्गों पर जाकर मेरी इस आज्ञा को प्रचारित करो कि “हे द्वारिकावासी नगरजनों ! इस बारह योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान द्वारिका नगरी का सुरा, अग्नि एवं द्वैपायन के कोप के कारण नाश होगा, इसलिये हे देवानुप्रियों! द्वारिका नगरी में जिसकी भी इच्छा हो, चाहे वह राजा हो, युवराज हो, ईश्वर (स्वामी या मन्त्री) हो, तलवर (राजा का प्रिय अथवा राजा के समान) हो, माडम्बिक (छोटे गाँव का स्वामी) हो, इभ्य सेठ हो, रानी हो, कुमार हो, कुमारी हो, राजरानी हो, राजपुत्री हो, इनमें से जो भी प्रभु नेमिनाथ के पास मुंडित होकर यावत् दीक्षा लेना चाहता हो, उसको कृष्ण वासुदेव ऐसा करने की सहर्ष आज्ञा देते हैं। दीक्षार्थी के पीछे उसके आश्रित सभी कुटुम्बीजनों की भी श्री कृष्ण यथायोग्य व्यवस्था करेंगे और बड़े ऋद्धि सत्कार के साथ उसका दीक्षा-महोत्सव भी वे ही सम्पन्न करेंगे।” “इस प्रकार दो तीन बार घोषणा को दोहरा कर पुन: मुझे सूचित करो।” कृष्ण का यह आदेश पाकर उन आज्ञाकारी राज पुरुषों ने वैसी ही घोषणा दो-तीन बार करके लौट कर इसकी सूचना श्री कृष्ण को दी।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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