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________________ { 58 [आवश्यक सूत्र प्रतिक्रमण करता हूँ-सात भय के स्थानों अर्थात् कारणों से, आठ मद के स्थानों से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों से अर्थात् उनका सम्यक् पालन न करने से, दसविध क्षमा आदि श्रमण धर्म की विराधना से, ग्यारह उपासक प्रतिमा-श्रावक की प्रतिज्ञाओं से अर्थात् उनकी अश्रद्धा तथा विपरीत प्ररूपणा से, बाहर भिक्षु की प्रतिमाओं से-उनका अश्रद्धा अथवा विपरीत प्ररूपणा से, तेरह क्रिया के स्थानों से, चौदह जीवों के समूह से अर्थात् उनकी हिंसा से, पन्द्रह परमाधार्मिकों से अर्थात् उन जैसा भाव रखने या आचरण करने से, सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के गाथा अध्ययन सहित सोलह अध्ययनों से, सतरह प्रकार के असंयम में रहने से, अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य में वर्तने से, ज्ञातासूत्र के उन्नीस अध्ययनों से अर्थात् उनकी विपरीत श्रद्धा प्ररूपणा करने से, बीस असमाधि के स्थानों से, इक्कीस शबलों से, बाईस परीषहों से अर्थात् उनको सहन न करने से, सूत्रकृतांगसूत्र के तेईस अध्ययनों से अर्थात् तद्नुसार आचरण न करने से या विपरीत श्रद्धा-प्ररूपणा करने से, चौबीस देवों से अर्थात् उनकी अवहेलना करने से, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं (का यथावत् पालन न करने) से, दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और व्यवहार-उक्त सूत्रत्रयी के छब्बीस उद्देशन कालों से, सत्ताईस साधु के गुणों से, आचारप्रकल्प-आचारांग तथा निशीथसूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों से, उनतीस पापश्रुत के प्रसंगों से, महामोहनीय कर्म के तीस स्थानों से। __ सिद्धों के इकतीस आदि या सर्वोत्कृष्ट गुणों से, बत्तीस योगसंग्रहों से, तेतीस आशातनाओं से, यथा अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, इहलोक, परलोक, केवली प्ररूपित धर्म, देव-मनुष्यों-असुरों सहित समग्र लोक, समस्त प्राण-विकलत्रय, भूत-वनस्पति, जीवपंचेन्द्रिय, सत्त्व-पृथ्वीकाय आदि चार स्थावर, तथैव काल, श्रुत-शास्त्र, श्रुत-देवता वाचनाचार्य-इन सबकी आशातना से, तथा व्याविद्ध-सूत्र के पाठों को या सूत्र के अक्षरों को आगे-पीछे किया हो, व्यत्यानेडितशून्यचित्त से कई बार पढ़ता ही रहा हो, अन्य सूत्र का पाठ अन्य सूत्र में मिलाया हो, अक्षर छोड़कर पढ़ा हो, अत्यक्षर-अक्षर बढ़ा दिये हों, पदहीन पढ़ा हो, शास्त्र एवं शास्त्राध्यापक का समुचित विनय न किया हो, घोषहीन-उदात्तादि स्वरों से रहित पढ़ा हो, योगहीन-उपधानादि तपोविशेष के बिना अथवा उपयोग के बिना पढ़ा हो, सुष्ठुदत्त-अधिक ग्रहण करने की योग्यता न रखने वाले शिष्य को भी अधिक पाठ दिया हो, दुष्ठुप्रतीच्छित-वाचनाचार्य के द्वारा दिये हुए आगम पाठ को दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो, अकालस्वाध्याय-कालिक, उत्कालिक सूत्रों को उनके निषिद्ध काल में पढ़ा हो, अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय किया हो, स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न किया हो। इस प्रकार श्रुतज्ञान के चौदह आशातनाओं से, और सब मिलाकर तेतीस आशातनाओं से जो भी अतिचार हो, तत्संबंधी मेरा दुष्कृत-पाप मिथ्या हो। विवेचन-असंयम-संयम का विरोधी असंयम है। संयम अर्थात् सावधानी के साथ भली भाँति
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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