SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन - प्रतिक्रमण] 57} तीन प्रकार के गौरव-अभिमान से लगने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। तीन गौरव-1. आचार्य आदि पद की प्राप्ति रूप ऋद्धि का अहंकार-ऋद्धिगौरव। 2. मधुर आदि रस की प्राप्ति का अभिमानरसगौरव तथा 3. सातागौरव-साता का अर्थ है आरोग्य एवं शारीरिक सुख। आरोग्य, शारीरिक सुख तथा वस्त्र-पात्र, शयनासन आदि सुख-साधनों के मिलने पर अभिमान करना एवं न मिलने पर उनकी आकांक्षा करना सातागौरव है। तीन प्रकार की विराधनाओं से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। वे इस प्रकार हैं-1. ज्ञान की तथा ज्ञानी की निंदा करना, ज्ञानार्जन में आलस्य करना, अकाल-स्वाध्याय करना आदि ज्ञानविराधना है। 2. सम्यक्त्व एवं सम्यक्त्वधारी साधक की विराधना करना दर्शनविराधना है। 3. अहिंसा, सत्य आदि चारित्र का सम्यक् पालन न करना, उसमें दोष लगाना चारित्रविराधना है। चार कषायों के द्वारा होने वाले अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ। चार कषाय-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय। चार प्रकार की संज्ञाओं के द्वारा जो अतिचार-दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। चार संज्ञाएँ-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा। स्त्री कथा, भक्त कथा, देश कथा और राजकथा इन चार विकथाओं के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। आर्तध्यान और रौद्रध्यान के करने से तथा धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान के न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। कायिकी, आधिकारणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी, इन पाँच क्रियाओं के करने से जो भी अतिचार लगा हो उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँचों कामगुणों के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। सर्वप्राणातिपातविरमण-अहिंसा, सर्वमृषावादविरमण-सत्य, सर्वअदत्तादानविरमण-अस्तेय, सर्वमैथुनविरमण-ब्रह्मचर्य, सर्वपरिग्रहविरमणअपरिग्रह, इन पाँचों महाव्रतों में कोई भी अतिचार दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भाण्डमात्र-निक्षेपणा-समिति, उच्चार-प्रश्रवण-श्लेष्म-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिकासमिति, इन पाँचों समितियों का सम्यक् पालन न करने से जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छहों जीवनिकायों की हिंसा करने से जो अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। ___कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या इन छहों लेश्याओं के द्वारा अर्थात प्रथम तीन अधर्मलेश्याओं का आचरण करने से और अंत की तीन धर्मलेश्याओं का आचरण न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy