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________________ चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण ] 59} इच्छाओं का नियमन और इन्द्रिय निग्रह करना है । 17 प्रकार के संयमों के सामान्य संग्रह नय की अपेक्षा एक संयम पद से ग्रहण कर लिया गया है। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली कषाय परिणति असंयम है । इसमें दृष्टि पौद्गलिक (बहिर्मुखी) हो जाती है। अतः इस सूत्र का अर्थ हुआ संयम पथ पर चलते हुए प्रमादवश असंयम हो गया हो, अन्तर्हृदय साधना पथ से भटक गया हो वहाँ से हटकर पुनः उसे संयम (आत्म स्वरूप) में केन्द्रित करता हूँ । - बन्धन - 'बध्यतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतूभूतेन तद् बन्धनम्' अर्थात् जिस हेतु के द्वारा आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है, वह बन्धन है । बन्धन के 2 भेद - राग और द्वेष । 'रंजनं-रज्यते वाऽनेन जीव इति रागः,' राग एव बंधनम् । द्वेषेणं द्विषत्यनेन इति वा द्वेष, द्वेष एव बन्धनम् । जिसके द्वारा जीव कर्मों से रंग जाता है वह मोह की परिणति ही राग है, अतः राग बन्धन रूप है । जिस मोह परिणति के द्वारा शत्रुता, घृणा, क्रोध, अहंकार आदि किया जाता है वह द्वेष है । वह भी बन्धन रूप है। स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुनाश्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषाक्लिन्नस्य, कर्मबन्धनो भवत्येवम् ॥ जिस मनुष्य ने शरीर पर तेल चुपड़ रखा हो उसके शरीर पर उड़ने वाली धूली चिपक जाती है। वैसे ही राग द्वेष युक्त आत्मा पर कर्मरज का बन्धन हो जाता है । दण्ड- सूत्र - दुष्प्रयुक्त मन, वचन और काया को आध्यात्मिक भाषा में दंड कहते हैं। जिसके द्वारा चारित्र रूप ऐश्वर्य का विनाश होने के कारण आत्मा दण्डित होता है। वह दण्ड कहलाता है। लाठी आदि द्रव्य दण्ड है उसके द्वारा शरीर दण्डित होता है। यहाँ दुष्प्रयुक्त मन आदि भाव दण्ड हैं, जिससे आत्मा दण्डित होती है । आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि- दण्ड्यते - चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः । गुप्ति - सूत्र - गुप्ति का अर्थ रक्षा करना होता है। 'गोपनं गुप्तिः' अतः मन, वचन और काया की रक्षा अथवा नियन्त्रण गुप्ति है । गुप्ति प्रविचार ( प्रवृत्ति रूप ) और अप्रविचार (निवृत्ति रूप) उभय रूप होती है । गुप्ति में असत् क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सत्क्रिया का प्रवर्तन मुख्य है । गुप्ति अन्ततोगत्वा प्रवृत्ति रहित भी हो सकती है। परन्तु समिति प्रवृत्ति रहित नहीं हो सकती है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में एक गाथा उद्धृत की है समिओ नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणंमि भइयव्वो । कुसल वइमुदीरिंतो, जं वयगुत्तो वि समिओ वि ।। समिति में गुप्ति की नियमा है और गुप्ति में समिति की भजना है। शुभ वचन बोलते हुए समिति और गुप्ति दोनों होती है। शुभ वचन प्रवृत्ति रूप होने से समिति है और अशुभ वचनों से निवृत्त होने से गुप्ति रूप है । गुप्त एकान्ततः निवृत्ति रूप भी हो सकती है अत: समिति की भजना कही है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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