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________________ { 18 [आवश्यक सूत्र सूत्र के अग्रभाग ‘तस्स उत्तरी........"ठामि काउस्सग्गं' में कायोत्सर्ग के उद्देश्य बताये गये हैं(1) आत्मा को उत्कृष्ट बनाना । (2) प्रायश्चित्त करना । (3) विशेष शुद्धि करना । (4) आत्मा को शल्य रहित बनाना । (5) पाप कर्मों का नाश करना। 'अन्नत्थ......."दिट्ठिसंचालेहिं' में इस कायोत्सर्ग में लगने वाले दोषों के लिए कुछ आगार रखे गये हैं। यद्यपि कायोत्सर्ग का अर्थ ही शरीर की ओर से ध्यान हटाकर, इसे पूर्णतया स्थिर कर, आत्मिक प्रवृत्तियों में लगाना है तथा शरीर के कुछ व्यापार ऐसे हैं जिन्हें कि दृढ़ से दृढ़ साधक भी बन्द नहीं कर सकता। इन क्रियाओं से भी ध्यान में विक्षेप होता है। अत: इस विक्षेप के लिए व्रत व प्रतिज्ञा धारण करते समय इसमें कुछ आगार (छूटे) रखना आवश्यक है। एतदर्थ इन आगारों का उल्लेख किया गया है। ये सभी शरीर सम्बन्धी क्रियाओं से सम्बन्धित हैं जो कि रोकी नहीं जा सकती। 'अन्नत्थ' अन्यत्र अन्य में, पर में, शरीर में ये क्रियाएँ घटित होती है, आत्मा में नहीं। शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान सम्यग्दर्शन है और यह इस पाठ की विशिष्टता है। अभग्गो-अविराहिओ-'भग्नः सर्वथा विनष्टः न भग्नोऽभग्नः विराधितो देश भग्नः न विराधितोऽविराधित:' अर्थात् सर्वथा नष्ट हो जाना भग्न कहलाता है, और कुछ अंश का टूट जाना विराधित कहलाता है। जो सर्वथा भग्न न हो वह अभग्न और देश से भी खण्डित न हो वह अविराधित कहलाता है। एवमाइएहिं आगारेहि-एवं अर्थात् इसी तरह के 'आदि' और भी आगार हैं। आदि शब्द से यहाँ टीकाकार ने चार आगारों को ग्रहण किया है-1. अग्नि का उपद्रव-अग्नि के उपद्रव से स्थान बदलना पड़े। 2. बिल्ली-चूहे आदि का उपद्रव या किसी पंचेन्द्रिय जीव के छेदन-भेदन होने के कारण अन्य स्थान में जाना। 3. यकायक डाकू अथवा राजा आदि का महाभय । 4. सिंह, सर्प आदि क्रूर प्राणियों का उपद्रव या दीवार आदि गिर पड़ने की शंका से दूसरे स्थान पर जाना । कायोत्सर्ग करने के समय ये आगार इसलिए रखे जाते हैं कि सब मनुष्यों की शक्ति एक सरीखी नहीं होती है । जो कम शक्ति वाले और डरपोक होते हैं, वे ऐसे अवसर पर घबरा जाते हैं इसलिए ऐसे साधकों की अपेक्षा आगार रखे हैं। 'जाव अरिहंताणं ............."वोसिरामि' पाठ में साधक कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा स्वीकार करता है। मूल नाणाइयारे (आगमे तिविहे का पाठ) आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे, इस तरह तीन प्रकार के आगम रूप ज्ञान के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोउं-जं वाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं,
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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