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________________ प्रथम अध्ययन सामायिक ] 17) = = मेरा कायोत्सर्ग हो, जाव अरिहंताणं भगवंताणं जब तक अरिहंत भगवान को, नमोक्कारेणं न पारेमि = नमस्कार करके ( इस कायोत्सर्ग को) नहीं पालूँ, ताव कायं = तब तक शरीर को, ठाणेणं स्थिर रखकर, मोणेणं (वचन से) मौन धरकर, झाणेणं मन को एकाग्र करने के साथ ही, अप्पाणं वोसिरामि = अपनी आत्मा को पाप कर्मों से अलग करता हूँ अर्थात् पापात्मा को छोड़ता हूँ । = = = भावार्थ-आत्मा की विशेष उत्कृष्टता, निर्मलता या श्रेष्ठता के लिए, प्रायश्चित्त के लिए, शल्यरहित होने के लिए, पाप कर्मों का पूर्णतया विनाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। कायोत्सर्ग में काय व्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ। परंतु जो शारीरिक क्रियायें अशक्य परिहोने के कारण स्वभावतः हरकत में आ जाती हैं उनको छोड़कर। वे क्रियायें इस प्रकार हैं-ऊँचा श्वास, नीचा श्वास, खाँसी, छींक, उबासी, डकार, अपान वायु का निकलना, चक्कर आना, पित्तविकारजन्य मूर्च्छा, सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप से कप का निकलना, सूक्ष्म रूप से नेत्रों की हरकत से अर्थात् गोचर से, इत्यादि अगारों से मेरा कायोत्सर्ग भग्न न हो एवं विराधना रहित हो । - जब तक अरिहंत भगवानों को नमस्कार न कर लूँ, तब तक एक स्थान पर स्थिर रह, मौन रहकर, धर्मध्यान में चित्त को स्थिर करके अपने शरीर को पाप व्यापारों से अलग करता हूँ। विवेचन - यह कायोत्सर्ग के पहले बोला जाने वाला पाठ है। इसके द्वारा ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण से शुद्ध आत्मा में बाकी रही हुई सूक्ष्म मलिनता को भी दूर करने के लिए विशेष परिष्कार स्वरूप कायोत्सर्ग का संकल्प किया जाता है । कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त का पाँचवाँ भेद है । कायोत्सर्ग में दो शब्द हैं- काय और उत्सर्ग । अतः कायोत्सर्ग का अर्थ हुआ काया शरीर की (उपलक्षण से मन और वचन का) चञ्चल क्रियाओं का उत्सर्ग त्याग। इस प्रायश्चित्त (कायोत्सर्ग) के द्वारा आध्यात्मिक शुद्धि (आत्म शुद्धि / हृदय शुद्धि) हो जाती है, क्योंकि आत्मा की अशुद्धि का कारण पापमल है, भ्रान्त आचरण है। प्रायश्चित्त के द्वारा पाप का परिमार्जन और दोष का गमन हो जाता है। 'पावं छिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णई तम्हा । पाएण वा वि चित्तं, सोहइ तेण पायच्छित्तं 11508 ।। ' प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ पंचाशक ग्रन्थ में इस प्रकार किया गया है- 'प्रायो बाहुल्येन चित्तं, जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति' अर्थात् प्राय: बहुत, चित्त-मन अर्थात् जीव को शोधन करने वाला । जिसके द्वारा हृदय की अधिक से अधिक शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त कहलाता है। ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे की टीका में इस प्रकार है- 'पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तं प्राकृते पायच्छित्तमिति' अर्थात् पाप का छेदन करने वाला । ‘प्रायः पापं विनिर्दिष्टं, चित्तं तस्य च शोधनम्' अर्थात् पाप का शोधन करना । विशेषावश्यक भाष्य में इन सभी अर्थों का समावेश हो जाता है
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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