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________________ प्रथम अध्ययन सामायिक ] 15) T विवेचन - उस्सुत्तो ( उत्सूत्र ) 'सूचनात्सूत्रम् ' जो सूचना करता है उसे सूत्र कहते हैं अर्थात् मूल आगम को सूत्र कहते हैं । उससे विपरीत को उत्सूत्र कहते हैं। उम्मग्गो (उन्मार्ग) वीतराग प्ररूपित दयामय धर्म को मोक्ष का मार्ग कहते हैं। उससे विपरीत अठारह पाप युक्त मार्ग को उन्मार्ग कहते हैं । मार्ग का अर्थ पूर्व परम्परा अर्थात् पूर्व कालीन त्यागी पुरुषों से चला आया पाप रहित कर्त्तव्य प्रवाह मार्ग कहलाता है। उससे विपरीत उन्मार्ग कहलाता है । आचार्य हरिभद्र ने उन्मार्ग का अर्थ ऐसा भी किया है। क्षायोपशमिक भाव (मार्ग) से औदयिक भाव में संक्रमण भी उन्मार्ग कहलाता है । अकप्पो चरण सत्तरी और करण सत्तरी रूप साधु आचार के विरुद्ध आचरण किया हो। नाणे तह दंसणे चरिते सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र सुए श्रुत का अर्थ श्रुतज्ञान है। वीतराग तीर्थङ्कर देव के श्रीमुख से सुना हुआ होने से आगम साहित्य को श्रुत कहा जाता है। श्रुत यह अन्य ज्ञानों का उपलक्षण है अत: वे भी ग्राह्य है । श्रुत का अतिचार है-विपरीत श्रद्धा और विपरीत प्ररूपण । सामाइए - सामायिक का अर्थ समभाव है। यह दो प्रकार से माना जाता है । सम्यक्त्व और चारित्र । चारित्र पाँच महाव्रत पाँच समिति तीन गुप्ति आदि है और सम्यक्त्व जिन प्ररूपित सत्य मार्ग पर श्रद्धा इसके दो भेद हैं-निसर्गज और अधिगमज । अतः सामायिक में दर्शन और चारित्र दोनों का समावेश समझना चाहिए। ‘नाणे तह-दंसणे चरित्ते' कहने के बाद फिर 'सुए सामाइए' कहने से पुनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए। ये तीनों भेद (ज्ञान, दर्शन और चारित्र) श्रुतधर्म और सामायिक धर्म में ही समाविष्ट हो जाते हैं । अतः इन तीनों शब्दों को ही दूसरे प्रकार से विशिष्टता बताने के लिए श्रुत और सामायिक में अवतरित कर दिया गया है। दुज्झाओ - यहाँ दुर्ध्यान का अर्थ आर्त्तध्यान रूप है । दुव्विचिंतिओ - अशुभ ध्यान की विशिष्ट अवस्था दुश्चिंतन रूप है अर्थात् रौद्रध्यान रूप है। असमणपाउग्गो-साधु वृत्ति से सर्वथा विपरीत है । जं खंडियं - व्रतों का आंशिक टूट जाना । जं विराहियं - व्रतों का सर्वथा टूट जाना । समणाणं जोगाणं - श्रमण सम्बन्धी योग- कर्त्तव्यों को श्रमण योग कहते हैं। श्रमण धर्म में श्रमण का क्या कर्त्तव्य है - उसमें सम्यक् आचरण, श्रद्धान और प्ररूपणा । प्रतिक्रमण का सार पाठ 'इच्छामि ठामि' है । इसे सार पाठ कहने का कारण इसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति के लिए तीन गुप्ति, चार कषायनिरोध, पाँच महाव्रत आदि में लगे हुए अतिचारों का मिच्छामि दुक्कडं दिया गया है।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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