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________________ आवश्यक सूत्र { 14 माणसिओ = काया, वचन व मन सम्बन्धी, उस्सुत्तो = सूत्र सिद्धान्त के विपरीत उत्सूत्र की प्ररूपणा की हो, उम्मग्गो = जिनेन्द्र प्ररूपित मार्ग से विपरीत उन्मार्ग का कथन किया व आचरण किया हो, अकप्पो, अकरणिज्जो = अकल्पनीय (नहीं कल्पे वैसा), नहीं करने योग्य कार्य किये हों, (ये कायिक वाचिक अतिचार हैं, इसी प्रकार ।), दुज्झाओ, दुव्विचिंतिओ = मन से कर्मबंध हेतु रूप दुष्ट ध्यान व किसी प्रकार का खराब चिंतन किया हो, अणायारो, अणिच्छियव्वो = अनाचार सेवन (व्रत भंग) किया व नहीं चाहने योग्य की वांछा की हो, असमणपाउग्गो = साधु धर्म के विरूद्ध आचरण किया हो, नाणे तह दंसणे = ज्ञान तथा दर्शन एवं, चरित्ते, सुए = चारित्र, सूत्र सिद्धान्त, सामाइए = सामायिक में, तिण्हं गुत्तीणं = तीन गुप्ति के गोपनत्व का, चउण्हं कसायाणं = चार कषाय = सेवन नहीं करने की प्रतिज्ञा का, पंचण्हं महव्वयाणं = पाँच महाव्रतों का, छण्हं जीवनिकायाणं = जीवों की छः काय का, सत्तण्हं पिण्डेसणाणं प्रकार की पिण्डेषणा का, अट्ठण्हं = आठ, पवयणमाऊणं = प्रवचन माता का, नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं: नव ब्रह्मचर्य की गुप्ति (वाड़) का, दसविहे = दस प्रकार के, समणधम्मे = साधुधर्म का, समणाणं = , जोगाणं = योग्य कर्त्तव्यों का, जं खंडियं = जो सर्व रूप से खण्डन हुआ हो, जं विराहियं = जो देश रूप से विराधना हुई हो तो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं = वे मेरे दुष्कृत कर्म रूप पाप मिथ्या हो । = सात श्रमण, = भावार्थ- हे भदन्त ! मैं चित्त को स्थिरता के साथ, एक स्थान पर स्थिर रहकर, ध्यान- मौन के सिवाय अन्य सभी व्यापारों का परित्याग रूप कायोत्सर्ग करता हूँ। (परंतु इसके पहले शिष्य अपने दोषों की अलोचना करता है-) ज्ञान में, दर्शन में, चारित्र में तथा विशेष रूप से श्रुतधर्म में, सम्यक्त्व रूप तथा चारित्र रूप सामायिक में ‘जो मे देवसिओ' अर्थात् मेरे द्वारा प्रमादवश दिवस संबंधी (तथा रात्रि संबंधी) संयम मर्यादा का उल्लंघन रूप जो अतिचार किया गया हो, चाहे वह कायिक, मानसिक, वाचिक अथवा मानसिक अतिचार हो, उस अतिचार का पाप मेरे लिये निष्फल हो । वह अतिचार सूत्र के विरुद्ध है, मार्ग अर्थात् परंपरा से विरुद्ध है, अकल्प्य - आचार से विरुद्ध है, नहीं करने योग्य है, दुर्ध्यान-आर्त्तध्यान रूप है, दुर्विचितिंत - रौद्रध्यान रूप है, नहीं आचरने योग्य है, नहीं चाहने योग्य है, संक्षेप में साधुवृत्ति के सर्वथा विपरीत है - साधु को नहीं करने योग्य है। योग-निरोधात्मक तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पाँच महाव्रत, छह पृथिवीकाय, जलका आदि जीवनिकायों की रक्षा, सात पिण्डैषणा - ( 1. असंसृष्टा, 2. संसृष्टा, 3. उद्धृता, 4. अल्पलेपा, 5. अवगृहीता, 6. प्रगृहीता, 7. उज्झितधर्मिका), आठ प्रवचन माता (पाँच समिति, तीन गुप्ति), नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म ( श्रमण संबंधी कर्त्तव्य) यदि खंडित हुये हों, अथवा विराधित हुये हों, तो वह सब पाप मेरे लिये निष्फल हो ।
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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