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________________ {xvi} तब उन्होंने सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत स्वीकार किए। बीच के 22 तीर्थङ्करों के संत प्रतिक्रमण नहीं करते ऐसा नहीं है, उनके जब दोष लगता है, तब वह ऋजुता और प्राज्ञता होने से तत्काल प्रतिक्रमण कर लेते हैं। उनकी सजगता (जागरुकता) अधिक होने से वे तत्काल दोष से असंग होकर आत्मशुद्धि कर लेते हैं। दोष को दूर किये बिना कोई तिरा नहीं, तिरता नहीं और तिरेगा नहीं। आवश्यक सूत्र अपने दोषों को दूर करने की एक मनोवैज्ञानिक व्यवस्थित साधना पद्धति है। प्रथम तीर्थङ्कर के संत-सती ऋजु और जड़ और 24वें तीर्थङ्कर के संत-सती वक्र और जड़ होने से उन्हें उभयकाल “आवश्यक करना” अनिवार्य बताया गया है। “अवश्यं करणाद आवश्यकम" अर्थात आवश्यक (प्रतिक्रमण) अवश्य करणीय है। __ अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम बताये हैं। “आवस्सयं अवस्स करणिज्जं, धुवणिग्गहो विसोही य। अज्झयण छक्कवग्गो, णाओ आराहणा मग्गो।। 1. आवश्यक 2. अवश्यकरणीय 3. ध्रुव निग्रह 4. विशोधि 5. अध्ययन षट्क वर्ग 6. न्याय 7. आराधना 8. मार्ग। इनमें एक नाम अवश्यकरणीय हैं। मुमुक्षु के लिए अवश्यकरणीय होने से ही इसका नाम ज्ञानियों ने अवश्यकरणीय रखा है। इसी के साथ कहा है-समणेणं सावएण य, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा। अंतो अहो, णिसस्स य, तम्हा आवस्सयं' नाम। अर्थात् साधु और श्रावक के द्वारा दिन और रात्रि के अंत में अवश्य करने योग्य होने से इसका नाम 'आवश्यक' रखा गया है। आचार्य मलयगिरी ने भी लिखा है-“अवश्यकर्त्तव्यमावश्यकम्।” श्रमणादिभिरवश्यम् उभयकालं क्रियत इति भावः। श्रमण और श्रावक को उभयकाल अवश्य करना चाहिए। इसलिए इसका नाम आवश्यक है। आज कुछ निश्चय दृष्टि में अतिरेक रखने वाले इसकी उपेक्षा करते हैं-यह उचित नहीं है। जिनाज्ञा की अवज्ञा है। मोक्ष पिपासु क्रियावान श्रावक को भी प्रतिदिन उभयकाल प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये। इतना संभव नहीं तो अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों को अवश्यमेव करें। पाक्षिक पर्व के दिन तो प्रतिक्रमण का विशेष लक्ष्य रखें। अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक के दो प्रकार बताये हैं-(1) द्रव्य-आवश्यक और (2) भावआवश्यक। (1) द्रव्य-आवश्यक-इसमें आवश्यक करने वाला मात्र पाठों का उच्चारण करता है। जो पाठ बोला जा रहा है, उसमें उसका उपयोग नहीं रहता। शब्दों में रहे हुए भावों के साथ जुड़कर वह अपनी आत्मा को भावित नहीं कर पाता। मात्र क्रियाएँ करता है। (2) भाव-आवश्यक-इसमें आत्मसाधक आवश्यक में रहे हुए एक-एक शब्द के साथ अपना
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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