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________________ { xvii } उपयोग जोड़ता है। शब्दों में रहे हुए भावों से अपनी चेतना को भावित करता है। अनुयोग द्वार सूत्र कह रहा है कि भाव आवश्यक करने वाला एकाग्रचित्त, तन्मय, तदनुरूप लेश्या वाला, उसी अनुरुप अध्यवसाय, तीव्र भावना युक्त, उसी के अर्थ में उपयोगवान्, मन को कहीं अन्यत्र नहीं ले जाते हुए जो आवश्यक करता है, वह “भावावश्यक है। जिनशासन में द्रव्य और भाव दोनों का महत्त्व है। द्रव्य भाव से ही सुशोभित होता है। द्रव्य आधार है तो भाव आधेय है। द्रव्य पात्र है तो भाव तदन्तर्गत पेय है। इसीलिए कहता हूँ-“भाई! प्रतिक्रमण अर्थ सहित सीखो। जो अर्थ का जानकार होगा-वह अपने को भावों से भी भावित कर पायेगा। अर्थोपार्जन के लिए लोग तेलगु, कन्नड़ आदि भाषाओं को सीख लेते हैं, परंतु भव से पार कराने वाले-इस प्राकृत भाषा के आवश्यक सूत्र को सीखने में उद्यम क्यों नहीं करते? इसके महत्त्व को समझकर इसे सीखने का पुरुषार्थ करना चाहिए। बँद-बँद से घडा भरता है। एक-एक पंक्ति या पाठ भी याद करेंगे तो एक दिन प्रतिक्रमण के जानकार बन जायेंगे। मैंने तो अनपढ लोगों को भी पाठ सुन-सुनकर प्रतिक्रमण याद करते देखा है। कहते हैं पच्चीस बोल की कुंजी और प्रतिक्रमण की पूँजी तो पास में होनी ही चाहिए। शास्त्रकारों ने इस आवश्यक सूत्र को छह-भागों में विभक्त किया है। 1. सामायिक 2. चतुविंशति स्तव-तीर्थंकर भगवंतों की स्तुति 3. वंदन-गुरुदेवों को वंदन 4. प्रतिक्रमण-पापों का मिथ्यादुष्कृत देना 5. कायोत्सर्ग-काया के ममत्व का त्याग 6. प्रत्याख्यान आहारादि का त्याग करना। अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक के छ: गुण निष्पन्न नाम बताये हैं। 1. सावद्य-योग विरति 2. उत्कीर्तन 3. गुणवत्प्रतिपत्ति 4. स्खलित निंदना 5. व्रण चिकित्सा 6. गुणधारण। छह आवश्यकों का सामान्य रूप से दिग्दर्शन करते हैं 1. सामायिक (सावद्य योग विरति)-समभाव की आय का नाम “सामायिक” है। विषम भाव का अभाव ही समभाव है। जीव का स्वभाव ‘समभाव' है। जीव जब अज्ञानवश दोष से जुड़ता है-तब उसमें विषम भाव पैदा होता है। जीव दोष से जुड़ता क्यों है? क्योंकि जीव भूलवश दोष को अपना मानने लगता है। अनादि संस्कारों के कारण रागादि दोष उसे सुखद लगते हैं। परंतु उन सुखों के पीछे दुःख भी लगा हुआ है। सुख का भोगी दु:ख का भागी बने बिना नहीं रह पाता। इस सुख का त्यक्ता ही आत्मिक सुख का भोक्ता बनता है। जीव की दोषों से दूरी कैसे हो? दोषों का द्रष्टा बने बिना उनसे दूरी होना संभव नहीं है। जिस क्षण साधक दोष का द्रष्टा बनता है, उस क्षण दोष उसके लिए एक दृश्य के रूप में होता है। अर्थात् दोष अलग हो जाता है और जीव अलग हो जाता है। दोष दर्शन का क्षण दोष विमुक्ति का क्षण है, जीव जितनी गहराई से अपने दोष दर्शन कर पायेगा, उतनी ही गहराई से अपने दोषों का निकंदन कर पायेगा। इसे एक व्यवहारिक दृष्टांत से देखते हैं
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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