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________________ प्रस्तावना परमात्मा महावीर देव ने परम पवित्रता को प्राप्त करने का प्राथमिक उपाय बताया है, “आवश्यक की आराधना।” पाप से पीछे हटे बिना कोई भी जीव धर्माराधना में आगे नहीं बढ़ सकता। निज दोषों को देखकर, उन दोषों को दूर करना-यही साधक का मुख्य कर्त्तव्य है। अपने दोष देखना भी एक श्रेष्ठ गुण है, धर्म साधना का प्रमुख अंग है। ___ उत्तराध्ययनसूत्र के 29वें अध्ययन की पाँचवीं पृच्छा में आलोचना (स्वदोष दर्शन) करने का सुंदर फल प्रतिपादित किया है। आलोचना करने वाला माया-निदान और मिथ्या दर्शन रूप तीनों शल्यों को उखाड़ फेंकता है-जो कि मोक्ष मार्ग में विघ्न रूप हैं। अनंत संसार के वर्धक हैं। आलोचना करने वाला ऋजु भाव को प्राप्त करता है। इसी के साथ छठी पृच्छा में भी बताया है कि आत्म निंदा करने वाला पश्चात्ताप को प्राप्त करता है। अपने पापों का पश्चात्ताप करता हुआ, क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर लेता है, मोहनीय कर्म को क्षय कर देता है। श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी एक दोहे में तिरने के तीन उपाय बताये हैं “प्रभु प्रभु धुन लागी नहीं, पड़या न सतगुरु पाय। दीठा नहीं निज दोष तो, तरिये कौन उपाय।।" अर्थात् प्रभु भक्ति, गुरु समर्पण और निजदोष-दर्शन, ये संसार सागर से तिरने के तीन उपाय हैं। ये अगर जीवन में न आये, तो जीव कैसे भवसिन्धु को तिरेगा? किसी मुमुक्षु को इकतीस आगम न भी आये तो भी उसमें संयम लेने की पात्रता हो सकती है, परंतु 32वाँ ‘आवश्यक सूत्र' नहीं आता है तो वह संयम लेने के योग्य नहीं है। कदाचित् किन्हीं कारणों से उसे “सामायिक चारित्र' प्रदान कर भी दिया गया है तो आवश्यक सूत्र कंठस्थ कराए बिना छेदोपस्थापनीय चारित्र में प्रवेश नहीं कराया जाता है। स्पष्ट है, संयम-साधना में, मुक्ति प्राप्ति में आवश्यक सूत्र का ज्ञान मूल हेतु है। प्रथम व अंतिम तीर्थङ्कर के शासनवर्ती श्रमण-श्रमणियों को उभयकाल आवश्यक करना (प्रतिक्रमण करना) आवश्यक होता है। चातुर्याम धर्म वाले पार्खापत्य संत जब 24वें तीर्थङ्कर के शासन में सम्मिलित हुए,
SR No.034357
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages292
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size2 MB
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