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________________ 248 ज्ञानी पुरुष (भाग-1) दादाश्री : मैंने कहा, 'आप क्यों आए हैं ?' तो कहा, 'अरे ! कहीं ऐसा करते हैं? तुझे इस तरह से आ जाना चाहिए क्या? यह तो बहुत बुरा दिखेगा'। मैंने कहा, 'मैं फिर कभी नहीं करूँगा ऐसा'। मुझसे कहा, 'ऐसा क्यों किया? क्या यह शोभा देता है'। मैंने कहा, 'नहीं करना चाहिए, लेकिन फिर भी हो गया। उन्होंने कहा, 'अपने में ऐसा नहीं करते'। चिट्ठी मिली इसलिए समझ गया कि अहमदाबाद जा रहा है, लेकिन ऐसा किसलिए? ऐसा क्यों किया तूने?' मैंने कहा, 'क्या करूँ? मुझे वहाँ ठीक नहीं लगता। मुझे अनुकूल नहीं आता'। तो कहा, 'नहीं, सबकुछ अनुकूल आएगा, क्यों नहीं आएगा?' फिर हम वापस चले गए। बड़े भाई की शर्म रखनी पड़ती है न, बड़े भाई की मर्यादा नहीं तोड़ सकते थे। फिर जब मैं बड़े भाई के साथ चला गया तो उस कॉन्ट्रैक्टर के साथ सौदा करना बेकार गया, सौदा फेल। इतनी परेशानी हुई थी, एक ही दिन की। फिर ऐसी परेशानी कभी भी नहीं हुई। हुई होगी लेकिन बहुत कम, कोई खास परेशानी नहीं हुई। नासमझी की झंझट, इसलिए भागने का दाग़ लगा बड़े भाई आए इसलिए वापस जाना पड़ा। वापस आए, उसके बाद तो जैसा था वापस वैसा ही हो गया। आपको तो कहीं जाना ही नहीं पड़ा होगा न? इस तरह तो मुझे ही जाना पड़ा। मेरा वहाँ तक का अनुभव है। हर एक चीज़ का जो अनुभव होता है न, तो मेरा ध्यान उसी में रहा करता है। वह कभी भी विस्मृत नहीं होता। ये सारे अनुभव, ज्ञान होने से पहले के हैं। ऐसे कई, अनेक प्रकार के अनुभव हुए थे। क्या-क्या नहीं हुआ होगा? ज्ञानी पुरुष पहले का कोई आश्रम (पूर्वाश्रम) भूल जाते हैं क्या? सब याद रहता है। लेकिन इतना यह सब हुआ था। इतिहास है यह सारा। इतना दाग़ लग गया। भाग जाने का दाग़ कहलाएगा न यह तो! नहीं कहलाएगा? खुद का व्यापार था, घर में कोई परेशानी नहीं। यह तो नासमझी की झंझट थी सारी! और कोई झंझट नहीं थी। सिर्फ खाना खाने
SR No.034316
Book TitleGnani Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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