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________________ १५५ रोन मिथ्यात्वकी ४-५-१० यावत् अनेक तरहसे प्ररुपणा की है वे सब भेद एक दूसरेमें समावेस हो सकते है। परन्तु विस्तार करनेका इतना ही कारण है कि बालजीव सुगमतासे समझ सके। वास्तवमे मिथ्यात्व उसीका नाम है जो सद् वस्तुको असद समझे । जब सुगमताके लिये इसके जितने भेद करना चाहे उतना भी हो सकते है। मिथ्यात्वको गुणस्थानक क्यों कहा ? इसमें कौनसे गुणका स्थानक है ? अनादिकालसे जीव संसारमें पर्यटन करता आया है। यथा दृष्टांतः-दो पुरुष कीसी रस्ते पर जा रहे थे और जाते २ उन दोनोंकी नजर एक सीपके टुकडा पर पडी । एकने कहा भाइ ! यह चांदीका टुकडा पडा है, दूसरेने कहा चांदी नही यह सीपका ठुकडा है। इसी तरह जीव अनादिकालसे संसार चक्रमे फिरते हुवे कभी भी उसको ऐसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हइ कि चांदी किसे कहते है और सीप किसे कहते है। आज यह ज्ञान हुवा कि उसके सफेद रंग और चमकको देख कर कहा कि यह चांदी है इसी विपरीत ज्ञानको मिथ्यात्व कहते है और जिस वस्तुका पहिले कुछ भी ज्ञान नहीं था उसको आज विपरीतपने जानता है वह जानना यह एक किस्मका गुण है। इसी तरह जीव अव्यवहार रासीमें भ्रमण करते अनंत काल व्यः तीत हो गया परन्तु वह इस बातको नहीं जानता था कि देवगुरु धर्म किसे कहते है और क्या वस्तु है। आज उसको इतना क्षयो पशम हुवा है की वह सदको असद् समझता है। अब किसी वक्त सुयोग मिलेगा तो यथावत् सम्यग ज्ञानकी भी प्राप्ति हो मायगी। परन्तु जब तक मिथ्यात्व गुणस्थानककी श्रद्धा है तबतक चतुष्क गती रुपी संसारार्णवमें भटकता ही रहेगा, विना सम्यग् ज्ञान के परम सुखको प्राप्त नहीं कर सकता। (२) सास्वादन गुणस्थानकका लक्षण-जीष अनादि
SR No.034232
Book TitleShighra Bodh Part 06 To 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherVeer Mandal
Publication Year1925
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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