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________________ ( २९८) शीघ्रबोध भाग ५ वां. निंद्रा आति है परन्तु सुखे सोना सुखे जाग्रत होना उसे निंद्रा । कहते है । और सुखे सोना दुःखपूर्वक जाग्रत होना उसे निंद्रानिंद्रा कहते है । खडे खडेकों तथा बैठे बैठेकों निंद्रा आवे उसे प्रचला नामाकि निंद्रा कहते है । चलते फीरतेको निंद्रा आवे उसे प्रचला प्रचला नामकि निद्रा कहते है। दिनकों या रात्रीमे चितवन . (बिचाराहुघा ) किया कार्य निंद्राके अन्दर कर लेते हो उसको स्त्यानद्धि निद्रा कहते है. एवं च्यार दर्शन और पांच निद्रा मीलाने से नौ प्रकृति दर्शनावर्णियकर्मकि है । (३) वेदनियकर्म-मधुलीप्त छुरी जैसे मधुका स्वाद मधुर है परन्तु छुरीकी धार तीक्षण भी होती है इसी माफीक जीवोंको शातावेदनि सुख देती है मधुवत और असातावेदनि दुःख देती है छुरीवत् जीसकि उत्तर प्रकृति दोय है सातावेदनिय, असाता. वेदनिय, जीवोंको शरीर-कुटुम्ब धन धान्य पुत्र कलत्रादि अनुकुल सामग्री तथा देवादि पौद्गलीक सुख प्राप्ति होना उसे सातावेदनियकर्म प्रकृतिका उदय कहते है और शरीरमें रोग निर्धनता पुत्र कलत्रादि प्रतिकुल तथा नरकादि के दुःखोका अनुभव करना उसे असातावेदनियकर्म प्रकृति कहते है। (४) मोहनियकर्म-मदिरापान कीया हुवा पुरुष बेभान हो जाते है फीर उनकों हिताहितका ख्याल नहा रहते है इसी माफीक मोहनियकर्मोदयसे जीव अपना स्वरूप भूल जानेसे उसे हिताहितका ख्याल नही रहता है जिस्के दो भेद है दर्शनमोहनिय सम्यक्त्व गुणको रोके ओर चारित्रमोहनिय चारित्र गुणको रोके जीसकि उत्तर प्रकृति अठावीस है जिस्का मूल भेद दोय है (१) दर्शनमोहनिय (२) चारित्र मोहनिय जिस्मे दर्शनमोह. निय कर्मकि तीन प्रकृति है (१) मिथ्यात्वमोहनीय (२) सम्यकत्व मीहनिय ( ३) मिश्रमोहनिय-जेसे एक कोद्रव नामका
SR No.034231
Book TitleShighra Bodh Part 01 To 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukhsagar Gyan Pracharak Sabha
Publication Year1924
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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