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________________ कर्मोकी उत्तरप्रकृति. ( २९७) उत्पन्न नही होना तत्व वस्तुपर विचार नहीं करने देना. प्रज्ञा नही फेलना-बदलेमें खराब मति-बुद्धि-प्रज्ञा-विचार पैदा होना यह सब मतिज्ञानावर्णियकर्मका ही प्रभाव है (२) श्रुतज्ञानावर्णिय-श्रुतज्ञानको रोके, पठन पाठन श्रवण करतको रोके, .सदृशान होंने नही देवे योग्य मीलनेपर भी सूत्र सिद्धान्त वाचना सुनने में अन्तराय होना-बदलेमें मिथ्याज्ञान पर श्रद्धा पठन पाठन श्रवण करनेकि रूची होना यह सब श्रुतिज्ञानावर्णियकर्मका प्रभाव है (३) अवधिज्ञानावणियकर्म-अनेक प्रकार के अवधिज्ञानकों रोके (४/मन पर्यवज्ञानावर्णियकर्म आते हुवे मनःपर्यवज्ञानको रोके (५ ) केवलज्ञानावर्णियकर्म-संपूर्ण जो केवलज्ञान है उनकों आते हुवेकों रोके इति ॥ (२) दर्शनावर्णियकर्म-राजाके पोलीया जैसे कीसी मनुध्यको राजासे मीलना है परन्तु वह पोलीया मीलने नही देते है इसी माफिक जीवोंको धर्म राजा से मीलना है परन्तु दर्शनाव. र्णियकर्म मोलने नही देते है जीसकि उत्तर प्रकृति नौ है. (१) चक्षु दर्शनावर्णियकर्म प्रकृति उदय से जीवोंको नेत्र ( आँखों) हिन बना दे अर्थात् एकेन्द्रिय बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय जातिमें उत्पन्न होते है कि जहां नेत्रोंका बिलकुल अभाव है और चौरिन्द्रिय पांचेन्द्रिय जातिमें नेत्र होने पर भी रातीदा होना, काणा होना तथा बिलकुल नही दीखना इसे चक्षु दर्शनावणियकर्म प्रकृति कहते है (२) अचक्षु दर्शनावर्णियकर्म प्रकृति उदयसे त्वचा जीभ नाक कान और मनसे जो वस्तुका ज्ञान होता है उनोंको रोके जिस्का नाम अचक्षु दर्शनावणिय कहते है ( ३ ) अवधि दर्शनावर्णियकर्म प्रकृति उदयसे अवधिदर्शन नही होने देवे अर्थात अवधि दर्शनको रोके ( ४ ) केवल दर्शनावणिय कर्मोदय, केवल दर्शन होने नहीं देवे अर्थात् केवल दर्शनपर आवरण कर रोक रखे ॥ तथा निंद्रा-निंद्रा निंद्रा दर्शनाधर्णियकर्म प्रकृति उदय से
SR No.034231
Book TitleShighra Bodh Part 01 To 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukhsagar Gyan Pracharak Sabha
Publication Year1924
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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