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________________ - कर्मोकी उत्तरप्रकृति. (२९९) अनाज हाते है जिस्को खानेसे नशा आ जाता है उन नशाके मारे अपना स्वरूप भूल जाता है। (क) जिस कोद्रव नामके धांनकों छाली सहित खानेसे बिलकुल ही बेभान हो जाते है इसी माफीक मिथ्यात्व मोहनिय कर्मोदयसे जाव अपने स्वरूपको भूलके परगुणमें रमणता करते है अर्थात् तत्व पदार्थ कि विप्रीत श्रद्धाकों मिथ्यात्व माहनिय कहते है जिस्के आत्म प्रदेशोंपर मिथ्यात्वदलक होनेसे धर्मपर श्रद्धा प्रतित न करे अधर्मकि प्ररूपना करे इत्यादि । ( ख ) उस कोद्रव धानका अर्ध विशुद्ध अर्थात् कुछ छाली उतारके ठीक किया हो उनको खानेसे कभी सावचेती आति है इसी माफीक मिश्रमोहनीवाले जीवोंको कुच्छ श्रद्धा कुच्छ अश्रद्धा मिश्रभाव रहते है उनको मिश्रमोहनि कहते है लेकीन वह है मिथ्यात्वमें परन्तु पहला गुणस्थान छुट जानेसे भव्य है। (ग) उस कोद्रव धानकों छाशादि सामग्रीसे धोके विशुद्ध बनावें परन्तु उन कोद्रव धानका मूल जातिस्वभाव नहीं जानेसे गलछाक बनी रहती है इसी माफीक क्षायक सम्यकत्व आने नही देवे और सम्यक्त्वका विराधि होने नही देवे उसे सम्यक्त्व मोहनिय कहते है । दर्शनमोह सम्यक्त्व घाति है दुसरा जो चारित्र मोहनिय कर्म है उसका दो भेद है (१) कपाय चारित्र मोहनिय (२) नोकषाय चारित्र मोहनिय और कषाय चारित्र मोहनिय कर्मके १६ है । जिस्मे एकेक कषायके च्यार च्यार भेद भी हो सक्ते है जेसे अनंतानुवन्धी क्रोध अनंतानुबन्धी जेसा, अप्रत्याख्यानि जेसा-प्रत्याख्यानि जेसा-और संज्वलन जेसा एवं १६ भेदोंका ६४ भेद भी होते है यहांपर १६ भेद ही लिखते है। अनंतानुबन्धी क्रोध-पत्थरकि रेखा सादृश, मान बनके
SR No.034231
Book TitleShighra Bodh Part 01 To 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukhsagar Gyan Pracharak Sabha
Publication Year1924
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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