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________________ द्वितीय उल्लास : EE त्यत्रापि शक्त्या छत्रस्य जहत्स्वार्थया छत्राभावस्य, 'काकेभ्य' इत्यत्र काकस्य शक्त्या बिडालादीनां च जहत्स्वार्थया, 'कुन्ता' इत्यत्र कुन्तत्वेन रूपेण जहत्स्वार्थयैव कुन्तरस्योपस्थितिरस्तु कृत मजहत्स्वार्थया, शक्यसम्बन्धस्य शक्येऽसत्त्वेन तदंशे लक्षणाया अभावात् कुन्तादेर्लक्ष्यतावच्छेदकत्वपक्षे तत्र लक्षणाया अभावाच्च, 'त्वामस्मि वच्मीत्यादावर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्ये' यत्किञ्चिच्छक्यतावच्छेदकरूपशक्यस्य परित्याग एव, अन्यथा तत्र जहदजहत्स्वार्थस्य तृतीयप्रकारस्याप्यापत्तेः, व्यक्तिमात्रशक्तिपक्षेऽप्याकाशपदादष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्वप्रकार [क] बोधस्य लाक्षणिकत्ववत्प्रकृतबोधस्यापि तथात्वात् । एवं सारोपसाध्यवसाने अपि न भिन्ने आरोपविषयवाचकपदोपादानानुपादानयोः क्रियापदाद्युपादानादेरिव भेदाप्रयोजकत्वाद् गौण्यपि न शुद्धातो भिन्ना सम्बन्धभेदेन लक्षणाभेदे सङ्क्षेपेण समवायकार्यकारणभावात् तादात्म्यादीनामपि भेदेन लक्षणाभेदप्रसङ्गात्; तस्मात् सर्वत्र जहत्स्वार्थैकरूपैव लक्षणा, सैव च क्वचिद् विशेष्यस्य क्वचिद विशेषणस्य क्वचिदुभयोः परित्यागात् त्रिविधेति न षड्भेदेति दिक् । लिए और 'गङ्गायां घोषमत्स्यो' में जैसे शक्ति से प्रवाह की और लक्षणा से तीर की उपस्थिति होती है, उसी तरह 'छत्रिणो यान्ति' यहाँ भी शक्ति से छत्र की और जहत्स्वार्था लक्षणा से छत्राभाव की उपस्थिति हो जायेगी, और 'arat दधि रक्ष्यताम्' में काक की शक्ति से और बिडालादि की जहत्स्वार्था से उपस्थिति सम्भव है, तथा 'कुन्ता: प्रविशन्ति' यहां कुन्तत्वेन रूपेण जहत्स्वार्था लक्षणा से ही कुन्तधर की उपस्थिति हो ही जायेगी । इस तरह 'अजहत्स्वार्था लक्षणा' मानना व्यर्थ है । अजहत्स्वार्थी को लक्षणा मानना सम्भव भी नहीं है; क्योंकि शक्यसम्बन्ध लक्षणा का लक्षण है; भेद न होने से शक्य का सम्बन्ध शक्य में नहीं हो सकने के कारण उस अंश में अर्थात् अजहत्स्वार्था या उपादान लक्षणा के उदाहरणों में भासित होनेवाले शक्य अंश में लक्षणा मानी ही नहीं जा सकती । 'वामस्मि वच्मि विदुषाम्' इत्यादि अर्थान्तर-संङ्क्रमितवाच्य नामक ध्वनि में यत्किञ्चित् शक्यतावच्छेदरूप शक्य अर्थ का परित्याग ही इष्ट है, अन्यथा वहीं लक्षणा का जहदजहत्स्वार्था नामक तृतीय भेद भी मानना होगा । व्यक्ति मात्र में शक्ति मानने के पक्ष में भी आकाश पद से होनेवाले पृथ्वी, जल आदि अष्ट द्रव्यातिरिक्तद्रव्यकारक बोध को जैसे लाक्षणिक मानते हैं वैसे इस बोध को भी लाक्षणिक माना जा सकता है | इस तरह सारोपा और साध्यवसाना भी परस्पर भिन्न नहीं हैं; क्योंकि उनके बीच आरोपविषयवाचक पद के उपदान और अनुपादान का ही भेद माना गया है । परन्तु पद के उपादान और अनुपादान वस्तु का परस्पर भेद aras नहीं हो सकता। यदि पद के उपादान को अनुपादान और भेदक मानें तो "त्वं गच्छ" "अहमागतोऽस्मि " इत्यादि वाक्यों से 'गच्छ' 'अहमागतः' इत्यादि वाक्य भिन्न हो जायेंगे । परन्तु क्रियापदादि के उपादान और अनुपादान के कारण इन्हें पृथक्-पृथक् ढंग के वाक्य प्रकारों में नहीं गिना गया है। गोणी भी शुद्धा से भिन्न नहीं है, सम्बन्ध भेद से लक्षणा में भेद मानने पर समवाय और कार्यकारण भाव सम्बन्ध भेद के कारण तादात्म्य आदि सम्बन्ध में भी भेद हो सकता है इस तरह अनावश्यक अनेक लक्षणा भेद मानने पड़ेंगे। इसलिए जहदजहत्स्वार्था नामक एक ही लक्षणा माननी चाहिए और वही कहीं विशेष्य, कहीं विशेषण और कहीं दोनों के परित्याग के कारण तीन प्रकार की होगी; ६ प्रकार की नहीं। यह स्पष्ट है । १. ध्वनाविति शेषः ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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