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________________ १८ काव्यप्रकाशः विधत्वस्याप्यापत्तिः अपि च स्वसादृश्यस्य स्वावृत्तित्वेन तत्रोपादानाद्यसम्भवः सम्बन्धान्तरेण गौणत्वायोगादिति। अत्र वदन्ति; काव्यविदां मते स्वसादृश्यमपि स्वस्मिन् वर्तत एव, कथमन्यथा 'गगनं गगनाकारम्' इत्यादि "त्वन्मुखं त्वन्मुखेनैव तुल्यं नान्येन केनचित्' इति च सङ्गच्छते ? किञ्च सादृश्यपदं साधारणधर्मपरं, न तु भिन्नत्वादिगर्भ, गौरवात् । यदुक्तं- 'लक्ष्यमाणगुणैर्योगादि'ति, तादृशं च जडत्वादिकमेवेति, अपि चैवमुपादानलक्षणापि दत्तजलाञ्जलिः, शक्यसम्बन्धस्य शक्येऽसत्त्वात्, न चोपादानलक्षणायां शक्यस्य लक्ष्यतावच्छेदकतया न तत्र लक्षणा, लक्ष्यतावच्छेदकशक्यकत्वं तल्लक्षणमिति वाच्यम्, छत्रिण इत्यत्र तयात्वाभावात्, वाहीकमात्र गाः समानयेति लक्षणलक्षणाया दुरुद्धरत्वाच्च । तस्मात् षड्विधेत्यस्य शुद्धात्वगौणोत्वोपादानत्वलक्षणात्वसारोपत्वसाध्यवसानत्वरूपषड्विभाजकोपाधिमत्त्वमित्येवार्थों ग्राह्यः। इदं तु वयमत्र विलोकयामः- युगपवृत्तिद्वयविरोधानङ्गीकाराद् विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धप्रातिपदिकार्थयोरभेदान्वयनियमस्य बहुशो व्यभिचाराच्च 'गङ्गायां घोषमत्स्या'वित्यत्रे व 'छत्रिणो यान्ती' . इतना ही क्यों? यदि गौणी के भी उपादान-लक्षणा और लक्षण-लक्षणा भेद मानें तो शुद्धा के ४ और गोणी के ४ भेद होने से लक्षणा के आठ भेद हो जायेंगे। सादृश्य भेदघटित होता है। अतः अपना सादृश्य अपने में नहीं , रहता, इसलिए सादृश्य-सम्बन्ध से होनेवाली लक्षणा में उपादानता सम्भव ही नहीं है । सम्बन्धान्तर से लक्षणा मानने पर वह गौणी नहीं होगी। इस सम्बन्ध में कुछ लोग कहते हैं कि काव्यज्ञों के मतानुसार स्व-सादृश्य (अपना सादृश्य) भी स्वयं में " (अपने-आप में) रहता है ऐसा माना गया है। यदि अपना सादृश्य अपने में न रहे तो "गगनं गगनाकारम्" इत्यादि आलंकारिक-प्रयोग कैसे होगा? यहाँ गगन में गगन का ही सादृश्य दिया गया है। 'स्व' में 'स्व' का सारश्य मानते हैं : 'इसलिए "त्वन्मुखं त्वन्मुखेनैव तुल्यं नान्येन केनचित्" यह प्रयोग भी संगत होता है। 'साहश्य' उसको नहीं कहा गया है जो उन पदार्थों में रहे जो आपस में भिन्न होते हुए बहुत से गुणों में समान हो; किन्तु यहाँ सादृश्य पद साधारण धर्ममात्रपरक है, वह भिन्नतादिधर्म से घटित नहीं है । भेदघटित लक्षण करने में गौरव होता है। "लक्ष्यमाणगुणर्योगात्" अर्थात् गौणी नाम इसलिए पड़ा कि इस लक्षणा में लक्ष्यमाण गुणों के साथ योग रहता है । उस प्रकार का गुण जडत्वादि ही है। एक बात और, ऐसा मानने पर उपादान-लक्षणा का भी उच्छेद हो जायेगा क्योंकि उपादान-लक्षणा में शक्यार्थ का भी भान रहता है । और वहां शक्यसम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता क्योंकि इस मत के अनुसार शक्य का सम्बन्ध शक्य में नहीं रह सकता। ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि उपादान-लक्षणा में शक्य के लक्ष्यतावच्छेदक होने से वहाँ लक्षणा हो जायेगी? क्योंकि 'लक्ष्यतावच्छेदकशक्यकत्वं' यही उपादान-लक्षणा का लक्षण माना गया है । "छत्रिणो यान्ति" यहाँ वैसा नहीं है। और वाहीक मात्र को उद्देश्य करके वाहीक को लाने के तात्पर्य से जहाँ कहा जायेगा “गाः समानय” वहां लक्षण-लक्षणा मानने से कोई युक्ति रोक नहीं सकती। इसलिए 'षविधा" इसका अर्थ यही मानना चाहिए कि लक्षणा की शुद्धात्व, गौणीत्व, उपादानत्व, लक्षणात्व, सारोपात्व और साध्यवसानत्वरूप ६ विभाजक उपाधियाँ हैं। मैं तो यहाँ ऐसा समझ रहा हूँ कि एकसाथ दो वृत्तियों की उपस्थिति को विरुद्ध नहीं माना गया है और विरुद्ध विभक्तियों से अनवरुद्ध दो प्रातिपदिकार्थों में अभेदवाले नियम का अनेक स्थानों पर व्यभिचार देखा गया है इस
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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