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________________ १०० काव्यप्रकाशः [सू १८] व्यङ्ग्येन रहिता रूढौ सहिता तु प्रयोजने । प्रयोजनं हि व्यजनव्यापारगम्यमेव । प्रभेदान्तरमाह-'सा चेतीति बहवः । ननु शुद्धात्वाद्युपाधिभिलक्षणायाः षड्विधत्वोपवर्णनमयुक्तं, निरूढत्वप्रयोजनवत्त्वमादायाष्टविधत्वस्यापि सम्भवादित्यत आह 'सा चेति लक्षणेत्यर्थः, तथा च निरूढा प्रयोजनवती चेति प्रथमतो लक्षणाया विभागस्ततः प्रयोजनवत्याः शुद्धत्वाद्युपाधिभिः षोढा विभाग इति विभक्तविभागोऽयमिति नानुपपत्तिः, 'लक्षणा तेन षड्विधा' इत्यत्र लक्षणापदं प्रयोजनवल्लक्षणापरमिति भाव इति मम प्रतिभाति, निरूढलक्षणामाह-व्यङ्गय ने] ति। . तथा च व्यङ्गयोपस्थित्यप्रयोजकलक्षणात्वं निरूढत्वमिति भावः । प्रयोजनवत्या लक्षणमाह-सहिता त्विति । (वृत्ति में) अन्य भेद बताते हुए लिखते हैं :-“सा च” । अर्थ है. वह लक्षणा रूढिमूलक भेदो में व्यङ्गय से रहित होती है तथा प्रयोजनमूलक भेदों में व्यङ्गय सहित होती है (सू० १८) ऐसा बहुत से विद्वान् लिखते हैं। शुद्धात्वादि उपाधि के कारण लक्षणा को ६ प्रकार का मानना असंगत प्रतीत होता है निरूढत्व और प्रयोजनवत्त्वरूप धर्म के कारण पूर्वोक्त शुद्धा के चार भेदों में प्रत्येक के दो-दो भेद होने से उसके आठ भेद भी हो सकते हैं । जैसे :- १. रूढिमूलक उपादानलक्षणा सारोपा शुद्धा, २. रूढिमूलक लक्षणलक्षणा सारोपा शुद्धा, ३. रूढिमूलक उपादानलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा, ४. रूढिमूलक लक्षणलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा, ५. प्रयोजनवतीउपादान लक्षणा सारोपा शुद्धा, ६. प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा सारोपा शुद्धा, ७. प्रयोजनवती उपादानलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा और ८. प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा। इसीलिए वृत्ति में कहते हैं - "साच"। इसका अर्थ है लक्षणा । इस तरह निरूढा और प्रयोजनवती भेद से प्रथमतः लक्षणा के दो विभाग किये गये हैं और उसके बाद प्रयोजनवती के शुद्धादि उपाधियों से ६ विभाग किये गये हैं इस तरह यह विभाग विभक्त का (प्रयोजनवती नामक लक्षणा के एक विभाग का) है। इसलिए मूल ग्रन्थ में कोई असंगति नहीं है। इस तरह "लक्षणा तेन षड्विधा" इस पंक्ति में लक्षणा पद प्रयोजनवती लक्षणा (मात्र) का बोधक है ऐसा मानना मुझे उचित प्रतीत होता है। . निरूढा लक्षणा का लक्षण बताते हैं :- "व्यङ्ग्येन" (सू०१८) (इस सूत्र का अर्थ पहले दिया गया है।) इसके आधार पर कहा जा सकता है कि जो लक्षणा व्यङ्गध की उपस्थिति नहीं कराती है ; वह 'निरूढा लक्षणा' कहलाती है। व्यङ्गय की उपस्थिति की अप्रयोजक लक्षणा को निरूढा लक्षणा कहते हैं। 'प्रयोजनवती लक्षणा' का लक्षण बताते हैं सहिता तु प्रयोजने'। इस तरह व्यङ्गय की उपस्थिति करानेवाली लक्षणा को प्रयोजनवती लक्षणा .. कहते हैं। "व्यङ्गयोपस्थितिप्रयोजकलक्षणायां प्रयोजनवत्याः लक्षणम्" । प्रयोजनवती लक्षणा में व्यङ्गय का नियम कैसे सम्भव है ? यह बताने के लिए कहते हैं-'प्रयोजनं हि व्यञ्जनाव्यापारगम्यमेव ।' क्योंकि 'प्रयोजन व्यञ्जना-व्यापार से ही जाना जा सकता है। इस तरह प्रयोजन और व्यङ्गय दोनों एकार्थक है। अतः स्वाभाविक है कि प्रयोजनवती लक्षणा व्यङ्गय अवश्य रहे। अतः इस लक्षणा में
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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