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________________ १०६ इलाघनीय है। निरुक्त, ध्वन्यालोक, तर्कभाषा एवं नाट्यदर्पण जैसे ग्रन्थों के अनुवाद की परम्परा में ही काव्यप्रकाश का यह अनुवाद लेखक ने 'काव्यप्रकाश-दीपिका' के नाम से लिखा है। इसमें प्राय: प्रत्येक स्थल पर सम्बन्धित विषयों के स्पष्टीकरण के लिये पूर्वापर-विवेचनों का उल्लेख करते हुए अपने अभिमत को भी स्थान दिया गया है। दार्शनिक तत्त्वों की प्रचलित व्याख्या और शास्त्रार्थों के निगूढ तत्त्वों की अन्थियों को भी सुलझाने का इसमें प्रयास हया है तथा साथ ही यत्रतत्र मम्मट की आलोचना भी की गई है। लेखक ने ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में भरत से प्राचार्य विश्वेश्वर (पर्वतीय) तक के पालङ्कारिकों के इतिहास का भी समावेश करते हुए उनके सम्बन्ध में प्रवर्तित धारणामों का ऊहापोहपूर्वक विवेचन दिया है। यह अनुवाद बहुत लोकप्रिय हुआ है। . यह ग्रन्थ 'ज्ञानमण्डल, वाराणसी से १९६० ई. में तथा उसके बाद चार-पांच संस्करणों में प्रकाशित हो चुका है। [ ४ ] विस्तारिणी एवं प्रभा- डा. हरदत्त शास्त्री तथा श्रीनिवास शास्त्री समीक्षात्मक भूमिका, भाषानुवाद, व्याख्या एवं विवेचन से युक्त इस अनुवाद का कार्य सम्पादन डॉ० श्रीनिवास शास्त्री.( कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्राध्यापक) ने नवतीर्थ, वेदान्त-व्याकरणाचार्य डॉ० श्रीहरिदत्त शास्त्री के निर्देशन में किया है। विस्तारिणी टीका पूरे ग्रन्थ का अनुवाद है। सम्भवतः यह अनुवाद पहले छपाया गया था और बाद में इसी का पल्लवन करके प्रभा-अनुवाद छापा गया है । विषयप्रवेशरूप भूमिका में अलङ्कारशास्त्र से सम्बन्धित विषयों का वर्णन प्राय: ४२ पृष्ठों में हुआ है । 'प्रभा' में मूल अनुवाद के अतिरिक्त प्रावश्यक विषयों का स्पष्टीकरण भी दिया है और प्रभा के पश्चात् 'टिप्पणी' का स्पष्ट शीर्षक देकर उसमें भी विस्तार से विवेचन किया है। इस दृष्टि से यह टीका भी पूर्ववर्ती हिन्दीटीकाकारों की लेखन-परिपाटी को आगे बढ़ाती है। इसका प्रकाशन 'साहित्य भण्डार, मेरठ (उ.प्र.) से हुआ है । तथा इसके सन् १९७० ई. तक तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । 'प्रभा' में 'संकेत' और 'चन्द्रिका' के कतिपयांशों का सम्पादन तथा छात्रोपयोगी टिप्पणी भी दिये गये हैं । यह छात्र संस्करण है। [५] बालक्रीडा-प्राचार्य मधुसूदन शास्त्री ( वर्तमान काल ) प्रस्तुत हिन्दीटीका लेखक' ने अपने द्वारा रचित 'मधुसूदनी' नामक संस्कृत टीका के साथ ही प्रकाशित की है। सामयिक उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर टीकाकार ने अपने विवरण को भाषा की दृष्टि से प्रपुष्ट करते हुए कहीं संस्कृत टीका का सार दिया है तो कहीं वहाँ के संकेतित विषय को अधिक स्पष्ट किया है । पाँचवें और दसवें उल्लास में 'मधुसूदनी' कृश हो गई है तो 'बालक्रीड़ा' प्रपुष्ट । ऐसा लगता है कि ये दोनों संस्कृत-हिन्दी टीकाएँ एक-दूसरी की कथनसम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दृष्टि से ही लेखक ने द्विधा श्रम द्वारा लिखी हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि इसमें अनेकत्र अस्पृष्ट विषयों को-जो कि पूर्वाचार्यों द्वारा प्रसिद्ध मानकर संकेत से समझाए गए थे, वे पुन: समझाकर विवेचित कर दिए गए हैं। इसका प्रकाशन मधुसूदनी के साथ ही हुआ है। १. लेखक का परिचय संस्कृत टीका 'मधुसूदनी' के विवरण में दिया है ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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