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________________ श्रमण-संस्कृति और सौन्दर्य ४२३ है कि उसे भिन्न नहीं किया जा सकता, कलामें ही सौन्दर्य-बोध होता है और सौन्दर्य कलामें व्याप्त रहता है। किसी भी वस्तुको कला और सौन्दर्यसे सँजोकर नयन-प्रिय बनाया जा सकता है, परन्तु यहाँ यह न भूलना चाहिए कि आनन्दसे सौंदर्यका संबंध है । सौंदर्यबोध यद्यपि इन्द्रियजन्य होता है परन्तु इंद्रिय द्वारा ग्राह्य सौंदर्य क्षणिक होता है। सौंदर्य वस्तुतः हृदयमें रहता है । रसानुभूति द्वारा ही वस्तुको देखा जाता है । श्रमण संस्कृति इंद्रियसंभूत आनन्दको सौंदर्यका कारण नहीं मानती । इन्द्रियाँ नाशवान् हैं और सौंदर्य अतीन्द्रिय । अतः शिवत्वकी प्राप्तिके लिए सौंदर्य ही पर्याप्त नहीं, कारण कि सौंदर्यसे ज्ञान नहीं मिलता, केवल संतोष ही मिलता है । सौंदर्यकी यह स्थिति तो इंद्रियजन्य ही रही। 'सत्य' से ही ज्ञानप्राप्ति होती है । 'सुन्दर' से सन्तोष । श्रमण-संस्कृतिका संतोष निवृत्तिमूलक है । इसका यह अर्थ नहीं कि बाह्य सौंदर्य द्वारा शिवत्वकी प्राप्ति संभव है जैसा कि पहले लिख चुका हूँ कि सत्यके द्वारा ही शिवत्वका मार्ग पकड़ा जाता है। जहाँ तक तथ्योंका प्रश्न है सौंदर्य भी उपेक्षणीय नहीं। जिस मनुष्यके हृदयमें जितनी भी रसानुभूतिकी पूर्णता होगी, उसे उतना ही सौंदर्य-बोध होगा, क्योंकि अभिनवगुप्तने काव्यशक्तिकी तरह रसज्ञताको भी एक दैवी वरदान माना है। इससे स्पष्ट है कि कलामें सबको समान भावसे सौंदर्य बोध नहीं होता। जिसमें अनुभूति होगी वही इसका मर्मज्ञान कर सकेगा। इसीलिए कला सर्वसाधारणकी वस्तु नहीं बन सकती, कलामें स्वभावतः कल्पना-बाहुल्य है। कलाका सम्बन्ध मनसे न होकर हृदयसे है । वही सौंदर्यानुभूतिका शाश्वत स्थान है । कला हृदयकी वस्तु होनेके बावजूद भी उनके चिन्त्य अनेक हैं। यही चिंत्य वस्तु तत्त्वके सत्य और मिथ्याके भेदोंका रहस्योद्घाटन करते हैं। कला तथ्यतक पहुंचा सकती है; सत्य तक नहीं। श्रमणोंने कलामें सत्यकी प्रतिष्ठा की। वे कलामें तथ्य नहीं खोजते । सत्यकी गवेषणा करते हैं। तथ्य वस्तुमें होता है, सत्य प्राणमें। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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