SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्डहरोंका वैभव आनन्द विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुरने ठीक ही कहा है "जहाँ हमें सत्यकी उपलब्धि होती है, वहीं हमें आनन्दकी प्राप्ति होती है। जहाँ हमें सत्यकी संपूर्णतया प्राप्ति नहीं होती वहाँ भानन्दका अनुभव नहीं होता।" ___. “साहित्य" पृष्ठ ५३ । ___ सत्याश्रित आनन्द ही स्वाभाविक होता है। पार्थिव आनन्द क्षणिक होता है। आत्मानन्द अमर है। इसी ओर श्रमण-संस्कृतिका संकेत है। इसकी प्राप्तिके लिए दीर्घकालीन साधना अपेक्षित है । श्रमण-जैन-मूर्तियोंका जीवन इस साधनाका प्रतीक है। इतिहास और परम्परासे भी यही प्रतीत होता है। आत्मस्थ सौंदर्य और आनन्दकी प्राप्ति सर्व साधारण के लिए सुगम नहीं। निःसंकोचभावसे मुझे स्वीकार करना चाहिए कि सत्य और सच्चे सौन्दर्यकी अखंड परम्परा ही श्रमण संस्कृतिकी आधारशिला है। इसीलिए तदाश्रित कलामें निरपेक्ष आनन्दकी अनुभूति होती है । वह आनन्द न तो कल्पनामूलक है और न वैयक्तिक ही। अरस्तूने कहा है "जिस आनन्द से समाजको उपकार न पहुँचे वह उच्चादर्शका आनन्द नहीं।" काण्ट, हेगेल आदि जर्मन दार्शनिकोंने कलासम्भूत आनन्दको निरपेक्ष आनन्द कहा है । इन पंक्तियोंसे ध्वनित होता है कि कलात्मक उपकरणोंसे उच्चकोटिका आनन्द उसी अवस्थामें प्राप्त किया जा सकता है, जब जीवन सत्यके सिद्धांतोंसे ओतप्रोत हो, वाणी और वर्तनमें सामंजस्य हो। अन्तर्मुखी चित्तवृत्तिके समुचित विकासपर ही अत्युच्च आनन्दकी प्राप्ति अवलंबित है। भारतीय दर्शन भी इसीका समर्थन करते हैं। भारतीय चित्र, शिल्प और काव्य भी ऐसे ही सत्याश्रित आनन्दसे भरे पड़े हैं। मानव समाजके सम्मुख भारतीय मुनियोंने सामयिक परिस्थित्यनुसार उपयुक्त विचारोंको रखा है। नैतिकताकी परम्पराका और सामाजिक परिवर्तनोंका इतिहास इन पंक्तियोंकी सार्थकता सिद्ध कर रहा है। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy