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________________ खण्डहरोंका वैभव कि इस प्रतिमाको तारादेवीकी प्रतिमा ही क्यों न माना जाय, परन्तु गवेषणा करनेपर. विदित हुआ कि बौद्ध-तान्त्रिक-साहित्यमें तारादेवीका जैसा वर्णन उल्लिखित है, उस वर्णनका आंशिक रूप भी प्रस्तुत प्रतिमामें चरितार्थ नहीं होता । प्रज्ञापारमिताकी एक प्रतिमा हमारे अवलोकनमें अवश्य आई है, पर उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं । दूसरे जैन-परिकर में इस देवीको कहीं भी कोई स्थान नहीं मिला है। प्रतिमाके निम्न भागमें चारों ओर ग्रास बने हैं। सारी प्रतिमा चार खम्भोंपर स्थित है । सम्पूर्ण प्रतिमाका, ढांचा एक मन्दिरके शिखरको दृष्टिमें ला देता है । उपर्युक्त विभागमें भिन्न-भिन्न प्रकारकी आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं, जो तत्कालीन भारतीय संस्कृतिके विशुद्धतम स्वरूपको बड़े ही सुन्दर ढंगसे व्यक्त करती हैं । यद्यपि प्रतिमाका निर्माण-काल स्पष्टरूपसे व्यक्त करनेवाला कोई लेख विद्यमान नहीं है; पर इस मूर्तिकी कलासे हम निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि ये संभवतः १० वींसे १२ वीं शतीकी निर्मित है। मूर्ति उत्तरभारतीय मूर्तिकलासे प्रभावित होते हुए भी मध्यप्रान्तीय विशेषताओंसे युक्त है। . भद्रावतीक़ा मध्यप्रान्तके इतिहासमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुराणादि प्राचीन साहित्यमें इसकी बड़ी महिमा गाई गई है। यहाँके बहुसंख्यक भग्नावशेषोंको देखनेसे मालूम होता है कि जैनों और बौद्धोंका यहाँपर एक समय पूर्ण प्रभाव था। यहाँके क्षत्रिय राजा बौद्ध धर्मको मानते थे, जैसा कि तत्रस्थ बीजासन-गुफ़ाके लेखसे विदित होता है । यहाँपर जैन-धर्मके प्राचीन अवशेष भी प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होते हैं । इस समय मन्दिर में मूलनायक पार्श्वनाथ प्रभुकी जो प्रतिमा है, वह भी यहींसे प्राप्त हुई है। सुना जाता है कि एक अंग्रेजको स्वप्नमें यह मूर्ति दिखी और बादमें प्रकट हुई। उस अँग्रेजको उपर्युक्त 'विशेषके लिए देखें "बौद्ध पुरातत्त्व” शीर्षक मेरा निबन्ध । Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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