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________________ जैन-पुरातत्त्व १६३ तकियेके उभय पक्षमें खड़े ग्रास बहुत ही सुन्दर व्यक्त किये गये हैं, जो अवान्तर प्रतिमाओंके स्कन्धपर पंजा जमाये हुए हैं । ऊपर मगरमच्छकी मुखाकृतियाँ इतने सुन्दर ढंगसे अंकित हैं कि एक-एक दाँत और जिह्वाकी रेखाएँ एवं चक्षु स्थानपर पड़ी हुई सिकुड़न स्पष्ट है। मूल प्रतिमाके ऊपरी भागमें छत्र-त्रय उल्लिखित हैं । इनके चारों ओर पीपलकी पत्तियाँ स्पष्ट अंकित हैं । छत्र कमलपुष्पकी याद दिलाये बिना नहीं रहते । प्रतिमामें चौबीस तीर्थंकरोंकी लघु प्रतिमाएँ पायी जाती हैं, जो सभी अर्द्ध-पद्मासनस्थ हैं । मूल प्रतिमाके स्कन्ध-प्रदेशके ऊपरी भागमें चामरयुक्त उभय परिचारक विशेष प्रकारकी भावभंगिमा व्यक्त करते हुए खड़े हैं। मुखमंडल भिन्नभिन्न भावोंका व्यक्तिकरण करता है । मस्तकपर मुकुट इतना सुन्दर और छविका द्योतक है, मानो अजन्ताके ही देव यहाँ अवतीर्ण हो गये हों । अँगुलियोंका विन्यास अतीव आकर्षक है । गन्धर्वके चरण-भाग यद्यपि अग्र भागसे दबे हुए हैं; पर प्रतिमाके पश्चात् भागसे विदित होता है कि कदली वृक्षतुल्य चरण-रचना इतनी सूक्ष्मतासे की गई है कि रोमराजिके छिद्रतकका आभास मिले बिना नहीं रहता । मूल प्रतिमाके उभय चरण-भागमें क्रमशः दाहिने देव और बायें देव और देवीको प्रतिमाएँ बनी हुई हैं, जो दोनों चतुर्भुज एवं अर्द्धपद्मासनस्थ हैं । देवके चारों हाथोंमें आयुध आदिका बाहुल्य है। विविध प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित होते हुए भी मुखमण्डलपर वृद्धत्वसूचक एवं घृणाके भाव न-जाने क्यों व्यक्त किये गये हैं । मस्तिष्क पटलपर भृकुटी चढ़ी हुई है। देवके चरण शरीरको अपेक्षा काफ़ी छोटे और स्थूल हैं। देवीकी चतुर्भुजी प्रतिमा अर्द्ध-पद्मासनस्थ है । दाहिने हाथमें बीजपूरक बिजौरा एवं उरमें शंखाकृतिवत् आयुधका आभास मिलता है। बायें हाथसे गदाका चिह्न और दूसरा हाथ आशीर्वादात्मक मुद्रा व्यक्त कर रहा है। देवीके विभिन्न अंगोंपर आवश्यक आभूषण और भी शोभामें अभिवृद्धि कर रहे हैं । इस प्रकारकी चतुर्भुजी देवीकी प्रतिमा देखकर मूर्ति-विज्ञानके कुछ हमारे परिचित विद्वानोंने धारणा बना ली थी Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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