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________________ ११८ खण्डहरोंका वैभव गर्भगृहके मुख्य द्वारकी चौखटपर भी कई आकृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। चँवरधारिणी नारियोंके अतिरिक्त उभय ओर जिन-प्रतिमाएँ या देव-देवियोंकी मूर्तियाँ तथा जिन-प्रतिमाएँ रहती हैं। मध्यस्थ स्तम्भपर तो निश्चितरूपसे मूर्तियाँ रहती ही है। ऐसे दो तोरण मेरे संग्रहमें सुरक्षित हैं। प्रयाग संग्रहालयमें भी हैं। राजपूतानामें भी ऐसी प्राकृतियोंका बाहुल्य है । इन तोरणोंमें लोकजीवन भी प्रतिबिम्बित होता है । __कुछ मन्दिर भूमिगत भी हैं । और तीन-चार मंज़िलके भी । तीर्थ स्थानोंपर मन्दिरोंको कला निखर उठती है। जैनोंके वे मन्दिर ही मध्यकालीन भारतीय वास्तुकलाकी अमूल्य निधि हैं। जैनसंस्कृतिका त्याग प्रधान रूप, इसके कण-कणमें परिलक्षित होता है। जैन-मन्दिरोंको जो लोग केवल धार्मिक स्थान ही समझे हुए हैं, उनसे मेरा यही निवेदन है कि, वे एक बार कलालतासे परिचित हो जायँ तो उनका मत ही बदल जायगा । वे मन्दिर न केवल जैनोंके लिए ही उपयोगी हैं, अपितु भारतीय कलाका उच्चतर कलातीर्थ भी हैं । मुख्यतः मंदिरों के निर्माणमें पत्थरोंका प्रयोग होता था। मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराजके संग्रहालयमें एक धातु मंदिर भी है, जिसपर इस प्रकार लेख खुदा है ॥०॥ स्वस्ति श्री नृपविक्रम संवत् १४६२ वर्षे माम्र-वदि ८, रवौ हस्ते साक्षाजगञ्चन्द्र सदक्षश्चतुर्मुखः प्रासादः श्री संघेन कारितः ॥ साधुधमाकेन सुवर्णरूप्यैरलंकारितः ॥ जगत् सेठकी माता माणिक देवीने भी एक रजतमन्दिर अपने गृहके लिए बनवाया था। रजत परिकर तो कई मिलते हैं। जिन मन्दिर रूपातणो, गृहमें सरस बनाय । प्रतिमा सोना रजतनी, थापी श्रीजिनराय ॥ यति निहाल कृत माणकदेवी रास (रचना सं० १७८६ पोषकृ०१३)। Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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