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________________ जैन-पुरातत्व गुम्बज़ रहते हैं। द्वारमंडप प्रायः सजा हुअा रहता है । दो स्तम्भोंका तोरण भी कहीं-कहीं रखा जाता है । मुख्य द्वारपर मंगलचैत्य या जिनमूर्तिकी प्राकृतिका रहना आवश्यक है । भीतरी भागोंमें भी जो मुख्य मंडप रहता है ---जहाँ साधक नर-नारी प्रभु-भक्ति करते हैं, वहाँ के सुललित अंकनवाले स्तम्भोंपर नृत्य करती हुई, या संगीतके विभिन्न वाद्योंको धारण करनेवाली, निर्विकार पुत्तलिकाओंकी भाव-सूचक मूर्तियाँ खुदी रहती हैं । इसे नृत्यमंडप भी कह सकते हैं । स्तम्भोंपर आधृत छतोंमें वीतराग परमात्माके समवशरण, या जिस तीर्थंकरका मन्दिर है, उसके जीवनकी विशिष्ट घटनाएँ खुदी हुई पाई जाती हैं । कहीं-कहीं विशेष उत्सवों के भावोंका प्रदर्शन भी देखा गया है। मधुच्छत्र इसीपर रहता है । अाबूका मधुच्छन' भारतीय शिल्प-कलाका अनन्य प्रतीक है। लूणिगवसहिके गुम्बज़ के मध्य भागका लोलक इतना सुन्दर और स्वाभाविक बना है कि इसके सामने इंग्लैड के ७ हेन्त्री वेस्ट मिनिस्टरके लोलक भाव विहीन अँचते हैं। ऐसे मधुच्छत्र राणकपुर के मेघनाद मंडपमें भी है। बाबूमें तो सोलह विद्यादेवियाँ उत्कीर्णित है । इतका विशेष प्रकारका अंकन जैन-मन्दिरोंको छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलता। नागपाश या एक मुख, या तीन या पाँच देहवाली प्राकृतियाँ द्वारके ऊपर रहती हैं। लोगोंका ऐसा विश्वास रहा है कि इस प्रकारकी प्राकृतियाँ बनानेसे कोई भी छत्रपति इसके निम्न भागसे निकल नहीं सकता । मुगलकाल में भी इन प्राकृतियोंका विशेष प्रचार रहा । मन्दिरका भीतरी भाग प्रायः अलंकृत रहता है। जैन-वास्तुशास्त्रका नियम है कि कहींपर भी प्लेइन प्रस्तर न रखा जाय । विमल वसहि वाले मधुच्छन्नके लिए "आर्किटेक्चर ऐट अहमदाबाद” देखना चाहिए। विशेषके लिए "पिक्चर्स एण्ड इलेस्ट्रेशन्स आफ एन्श्येण्ट आर्किटेक्चर इन हिन्दुस्तान" देखें। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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