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________________ । ३०६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । मुखप्रसेके जठरे कुष्ठे नेत्रामये ज्वरे । व्रणे च मधुमेहे च पिबेत्पानीयमल्पकम् ॥७३॥ अरुचि, प्रतिश्याय, अग्निपान्द्य, शोय, क्षय, मुखप्रसेक ( मुहँसे जलका बहना,) उदररोग, कुष्ठ, नेत्ररोग, ज्वर, व्रण, और मधुमेहमें पानी थोडा पीना चाहिये । ७२ ॥ ७३ ॥ आवश्यकता। जीवनं जीविनां जीवो जगत्सर्वं तु तन्मयम् । अतोऽत्यंतनिषेधेऽपि न क्वचिद्रारि वार्यते ॥७॥ सम्पूर्ण प्राणियों का जीवन जल है, सम्पूर्ण जगत जलमय है इस लिये जिन रोगोंमें अत्यन्त निषेध भी है उनमें भी सर्वथा जलका त्याग नहीं करना चाहिये ॥७४॥ हारीतः। तृष्णा गरीयसी घोरा सद्यः प्राणविनाशिनी । तस्माद्देयं तृषार्ताय पानीयं प्राणधारणम् ॥ ७५ ॥ तृषितो मोहमायाति मोहात्प्राणान्विमुंचति । अतः सर्वास्ववस्थासु न कचिद्वारि वर्जयेत् ॥७६॥ हारीतने भी कहा है तृष्णा प्रत्यन्त भयंकर और शीघ्र ही प्राणों को नष्ट कर देनेवाली होती है, इस लिये तृषार्तको प्राण धारण करनेके लिये जल अवश्य देना चाहिये। तृषित मनुष्य मोहको प्राप्त होता है और मोहको प्राप्त हुमा मनुष्य प्राणोंको छोड देता है इस लिये सब अवस्थामें जलका कहीं भी सर्वथा स्याग न करे ॥ ७५॥७६ ॥ प्रशस्तजलम् । अगंधमव्यक्तरसं सुशीतं तर्षनाशनम् । स्वच्छं लघु च हृद्यं च तोयं गुणवदुच्यते ॥ ७७॥ गन्धरहित, जिसमें कोई रस प्रगट न हो, अत्यन्त शीतल, प्यासको
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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