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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३०५) जलपानम्। अत्यंबुपानान विपंच्यतेऽनं निरंबुपानाच्चसएवदोषः । तस्मानरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारिपिबेदभूरि६८ जलके बहुत पीनेसे अन्न नहीं पचता और जलके बिल्कुल न पीनेसे अन्न नहीं पचता, इस कारण अग्निको बढानेके लिये थोडा २ तथा कई वार जल पीना चाहिये ॥ ६८ ॥ शीतलजलम् । मूर्छादिपित्तदाहेषु विषे रक्ते मदात्यये । श्रमे भ्रमे विदग्धेऽने तमके क्षवथो तथा ॥ ६९ ॥ ऊर्द्धगे रक्तपित्ते च शीतमंबु प्रशस्यते । मूर्छा, पित्त दाह, विष, रक्तविकार, मदात्यय, श्रम, भ्रम, तमकश्वास, क्षवथु (छींक) और ऊर्ध्वगत रक्तपित्त में तथा जितको विदग्धा. जीर्ण हो उनको शीतल जल पीना योग्य है ॥ ६९ ॥ तनिषेधः। पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे ॥ ७० ॥ आध्मानोस्तमिते कोष्ठे सद्यःशुद्धौ नवज्वरे । अरुचिग्रहणीगुल्मवासकासेषु विद्रधौ ॥ ७१ ॥ हिकायां स्नेहपाने च शीतांबु परिवर्जयेत् । पसनीके शूलमें, प्रतिश्याय, वातरोगमें, गलग्रहमें, आध्मानमें, कोठेकी शुद्धिके लिये विरेचन करानेपर, नवीन ज्वरमें, अरुचि में, ग्रहणीमें, गुल्ममें, श्वास, कासमें, विद्रधिमें, हिचकीमें तथा स्नेहके पीने के अनन्तर, शीव जल नहीं देना चाहिये ॥ ७० ॥ ७१ ॥ अल्पजलम् । अरोचके प्रतिश्याये मंदेऽनौ श्ववथौ क्षये ॥ ७२ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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