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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३०७) नष्ट करनेवाला, स्वच्छ, लघु और हृदयको प्रिय नगनेवाला जल उत्तम होता है ॥७७ ॥ निदितम् । पिच्छिलं कृमिलं किन्नं पर्णशैवालकर्दमैः । विवर्ण विरसं सांद्रं दंगधं न हितं जलम् ॥ ७८ ॥ कलुष छनमभोजपणनीलीतृणादिभिः । दुःस्पर्शनमसंस्पृष्टं सौरचांद्रमरीचिभिः ॥ ७९ ॥ अनातवं वार्षिकं तु प्रथमं तच्च भूमिगम् । व्यापन्न परिहर्तव्यं सर्वदोषप्रकोपनम् ॥ ८ ॥ तत्कुर्यात्स्नानपानाभ्यः तृष्णाध्मानचिरज्वरान् । कासानिमांद्याभिष्यंदकंडुगंडादिकं तथा ॥ ८१ ॥ जो जल पिच्छिल, कीडोंवाला, पत्ते शैवाल और कीचड़ मादिसे. खराब, बुरे वर्णवाला, रसरहित, गाढा तथा दुगधेित हो वह जल अहेि. तकर होता है। एवं मलीन, कमलके पत्ते, शवाल, तृण आदिसे ढका हुआ, बुरे स्पर्शवाला, सूर्य तथा चन्द्रमाकी किरणोंसे असं स्पृष्ट, विना ऋतु परसा हुमा पौर पृथ्वीपर गिरा हुमा तथा खराब जन नहीं पीना चाहिये। क्योंकि वह सर्व दोषोंको प्रकुपित करता है। ऐसे जनका पीना तथा स्नान, तृष्णा, पाम्मान, जीर्णज्वर कास, अग्नि की मंदता,अभिष्यन्दा कण्डु पोर गण्डरोगादिकोंको करता है ॥ ७८-८१ शोधनम् । निंदितं चापि पानीयं कथितं सूर्य्यतापितम् । सुवर्ण रजतं लोहं पाषाणं सिकतामपि ॥ ८२ ॥ भृशं संताप्य निर्वाप्य सप्तधासाधितं तथा । कर्परजातिपुत्रागपाटलादिसुवासितम् ॥ ८३ ।। ना
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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