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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (१९६) शाल्यन्नं येन संसिक्तं भवेदक्लेदि वर्णवत् । तद्वांगं सर्वदोषघ्नं ज्ञेयं सामुद्रमन्यथा ॥ १३ ॥ तनु सक्षारलवणं शुक्रदृष्टिबलापहम् । विस्रं च दोषलं तीक्ष्णं सर्वकर्मसु गर्हितम् ॥ १४ ॥ सामुद्रं त्वाश्विने मासि गुणैगगवदादिशेत् ॥ अगस्त्यस्य तु देवर्षेरुदयात्सकलं जलम् ॥ १२ ॥ निर्मलं निर्विषं स्वादु शुकलं स्याददोषलम् । अत एवाह । फूत्कार विषवातेननागानां व्योमचारिणाम् ॥ १६ ॥ वर्षासु सविषं तोयं दिव्यमप्याश्विनं विना । गांग और सामुद्र यह दोनों धाराजल के भेद हैं । दिग्गज, प्राकाशगंगाके जलको लेकर बादलों में छिप कर वृष्टिको करते हैं, यह सत्पुरुष कहते हैं। विशेषकरके जो जल ग्राश्विनमासमें बरलता है वह गांग सम झना चाहिये । वह जल सुवर्णके, रजतके प्रथवा मट्टी के बर्तन में रक्खा हुमा, रोगियोंको देना चाहिये। ऐसेही चरक में भी कहा है। जिस जलके डालने से चावल जैसे हों वैसे ही दिखाई दें वह जळ गांग होता है और वह त्रिदोषनाशक है। जो ऐसा न हो वह सामुद्र होता है । सामुद्रजल - क्षारयुक्त, नवया रसाला, शुक्र दृष्टि और बनको हर. नेवाला, दुर्गन्धयुक्त, दोषोंको बढानेवाला, तीक्ष्णा चौर सब कामों में निन्दित है । आश्विन मास में बरसे हुए सामुद्रजलमें गांग के समान गुण होते हैं क्यों कि देवर्षि अगस्त्यके उदय हो जानेसे सब जल निर्मल, विष.. रहित, स्वादु, वीर्यवर्धक और दोषरहित हो जाते हैं। इसी कारण कहा है कि आकाश में घूमनेवाले नागादियोंके विषयुक्त पवनसे वर्षा ऋतु दिव्य जल भी विषैला हो जाता है । परन्तु अश्विन मास में विषरहित होता है ।। १०- १६ ॥ अनार्त्तवम् । अनार्तवं प्रमुचंति वारि वारिधरास्तु यत् ॥ १७ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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