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________________ (२९६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । तत्रिदोषाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्तितम् । ___ करकाजलम् । दिव्यवाय्वग्निसंयोगात्संहताः खात्पति याः॥१८॥ पाषाणखंडवच्चापस्ताः कारक्योऽमृतोपमाः। करकाजं जलं रूक्षं विशदं गुरु चास्थिरम् ॥ १९ ॥ दारुणं शीतलं सांद्र पित्तहत्कफवातकृत् । बिना ऋतुके जो जल धारारूपमें बरसता है वह त्रिदोषकारक है। प्राकाशकी वायु और अग्नि के संयोगसे जो जल पत्थरके टुकड़ोंके समान बन्धा हुआ पोलोंके रूपमें गिरता है वह करकाभव होता है । करका. भव जल-अमृत-समाब, क, स्वच्छ, भारी, अस्थिर, दारुण, शीतल, चांद्र पित्तनाशक और कफ तथा वातको नष्ट करने वाला है ॥ १७.-१९ ॥ तोषारम् । अपि नद्यः समुद्रांते वह्निरापश्च तद्भवाः ॥२०॥ धूमावयवनिमुक्तास्तुषाराख्यास्तु ताः स्मृताः । अपथ्याः प्राणिन प्रायो भूरुहाणां तु ता हिताः२१॥ तुषारांबु हिमं रूक्षं स्याद्वातलमपित्तलम् । कफोरुस्तंभकंठराग्रिमेदोगंडादिरोगकृत् ॥ २२ ॥ नदीत लेकर समुद्र पर्यन्त जल में अग्नि होती है, उस अग्निसे उत्पत्र हुमा तथा धूमके अवयवोसे रहत जो जल होता है उसे तुषार कहते है। नुषारजन-प्रायः प्राणियों के लिये हानिकारक तथा वृक्षों के लिये लाभदायक है तथा शीतल, क्ष, वातकारक, पिनाशक और कफ, ऊरस्तम्भ कण्ठरोग, अग्नि, भेद और गण्डादि रोगों को करनेवाला है ।। २०-२२ ॥ हेमजलम् । हिमवच्छिखरादिभ्यो द्रवीभूयाभिवर्षति । यत्तदेव हिम हमें जलमाहुर्मनीषिणः ॥ २३ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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