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________________ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1 (२१५ ) पांडूदरार्शोज्वर कुष्ठकासश्वासक्षयान्पीन समम्लपित्तम् । शोथंकृमिं शूलमपाकरोति प्राहुः परे बृंहणमल्पमेतत् ३० न विषं विषमित्याहुस्ताम्रं तु विषमुच्यते । एको दोषो विषे ताम्रे त्वष्टौ दोषाः प्रकीर्तिताः ॥ ३१॥ दाहः स्वेदोऽरुचिर्मूर्च्छा दो रेको वमिमः । स्वामि कार्तिकका शुक्र पतित होकर जो पृथ्वीपर गिरा उससे ताम्न बन गया, ऐसा ऋषि कहते हैं। ताम्र, औदुंबर, शुल्व, उदुंबर, रविप्रिय, म्लेच्छमुख, और सूय्यंके वाचक सब शब्द तांबेके नाम हैं। इसे फारसीमें मिख और अंग्रेजी में Copper कहते हैं। तांबा जपाकुसुमके समान लाल वर्णवाला, चिकना, नरम और घनकी चोटसे न टूटनेवाला है । लोह और सीसे पादिके अंशसे रहित, ऐसा स्वच्छ शुद्ध ताम्र भस्मके लिये अच्छा होता है । जो ताम्र काले वर्णका, रूखा, अत्यन्त कठोर, श्वेत, घनकी चोटसे टूटे जानेवाला, लोड और सीसा युक्त, वह दूषित ताम्र सेवन करने के योग्य नहीं होता । ताम्र-कषाय, मधुर, तिक्त और अम्ल होता है । एवं पाक में कटु होता है। तथा सारक, पित्तनाशक, कफनाशक, शीतल, रोपण, हलका, लेखन है । पाण्डुरोग, उदररोग, अर्श, ज्वर, कुष्ठ, खांसी श्वास, क्षय, पीनस, अम्लपित्त, शोध, कृमि और शूलको दूर करता है । तथा किंचित शरीरको पुष्ट भी करता है। विष दी केवल विष नहीं, ताम्र महाविष कहा जाता है। क्यों कि विषमें एक ही दोष है, ताम्रमें - दाह. स्वेद, अरुचि, मूच्छ, क्लेद, रेचन, दमन और भ्रम यह आठ दोष कहे हैं। इस लिये ताम्रको अत्यन्त शुद्ध और भस्मित करके सेवन करना चाहिये ।। २५- ३१ ॥ बंगम् | रंग वगं त्रपु प्रोक्तं तथा पिचरमित्यपि ॥ ३२ ॥
SR No.034197
Book TitleHarit Kavyadi Nighantu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhav Mishra, Shiv Sharma
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1874
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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