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________________ [ ६१ ] सम्यक्त्वमूल द्वादश व्रत अंगीकार कर पूर्ण श्रावक वने उस दिन से निरंतर त्रिकाल जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने लगे । परम गुरु श्री हेमचंद्राचार्यकी विशेष रूप से उपासवा करने लगे । और परमात्मा महावीर प्रणीत अहिंसा स्वरुप जैन-धर्मका आराधन करने लगे । आप बडे दयालु थे किसी भी जीhi कोई प्रकारका कष्ट नहीं देते थे। पूरे सत्यवादी थे, कभी भी असत्य भाषण नहीं करते थे । निर्विकार दृष्टिवाले थे, निजकी राणीयोंके सिवाय संसार मात्रका स्त्रीसमूह आपको माता, भगिनी और पुत्री तुल्य था । महाराणी भोपल देवीकी मृत्यु के बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया था, राज्य लोभ से सर्वथा पराङ्मुखथे । मद्यपान, तथा मांस और अभक्ष्य पदार्थो का भक्षण कभी नहीं करते थे, दीन दुःखीयोंकों और अर्थी जनाको निरंतर अगणित द्रव्य दान करते थे । गरीब और असमर्थ श्राThis frर्वाह के लिए हरसाल लाखों रुपये राज्य के खजानेमेंसे देते थे । आपने लाखों रुपयोंको व्यय कर जैनशाखोका उद्धार कराया और अनेक | Aho! Shrutgyanam
SR No.034195
Book TitleGirnar Galp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherHansvijay Free Jain Library
Publication Year1921
Total Pages154
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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