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________________ [ ९३ ] मातम मांही वात एसि परदाखीरे ॥ भ० ॥ १२ ॥ श्री शत्रुंजय उधार कराव्या ।। भरतादिके जै वारेरे ॥ नेमनाथना ऋण कल्याणिक रेवत गिरिये ते वारेरे ॥ भ० || १३ || वर प्रासाद भरावि प्रतिमाजब पांडव उद्धाररे थापी लेपतणी प्रभु मूरति तिहां एवो अधिकाररे ॥ भ० ।। १४ ।। इम गिरिनार तिरथनो महीमा अवधारो भवि लोकरे नेमिनाथनी सेवा सारी लहो अनंत फल थोकरे ॥ भ० ॥ १५ ॥ ढाल चोथी. भरत नृप भावशु ए ए चाल छे । देशि स्तुतिनी ॥ एम सुणी सहिगुरु देसनाए श्रावक सोहे रत्न - के || हरख घरे सुणो है | सभा सहु कोई देखतां हे || करे अभीग्रह धन्य के ह० ॥ १ ॥ आजथकी प्रभु माह्य ए पंच विजय परिहार के ह० भोमि शयन ब्रह्मचर्य धरूं हे लेयुं एकवार आहार के ।। ६० | २ || संघ सहू गिरनार जावा हे जीहां नही भेटु नेमके ह० तिहां लगीमे अंगीकरोरो इह अभिग्रह • एम के ॥ ० ॥ ३ ॥ प्राण शरीरे जोधरु हे करू Aho ! Shrutgyanam
SR No.034195
Book TitleGirnar Galp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherHansvijay Free Jain Library
Publication Year1921
Total Pages154
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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