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________________ पयनो. ॥ ८ ॥ STOR-फिर अणशण भाराधनाना लाभ यकी पोताने कृतार्थ माननाराने, पापरुपी कादवने ओलंगवाने लाकडी सभत्तमान एवी शीखामण आचार्य दे ॥५२॥ . कुग्गह परुढ मूलं ॥ मूलाचविंद वन मिचत्तं ॥ नावेसु परमतनं ॥ संमत्तं सुत्त नीइए ॥ ३ ॥ कुग्रह (कदाग्रह) कपी बध्युछे मूल जेनुं एवा मिथ्यात्वने मूल थकी उखडी नांखीने हे वत्स परम तस्व एवा सम्यक्त्वने सूत्रनी नीतिए भाव्य ॥ ५३॥ जत्तिं च कुणसु तिवं ॥ गुणाणुराएण वीयरायाणं ॥ तह पंच नमुक्कारे ॥ पवयणसारे रइं कुणसु ॥ ५४॥ वली गुणना अमुरागवडे वितराग भगवाननी तीव्र भक्ति कर ।। तथा प्रवचननो मार एवा पांच नमस्कारने विष अनुराग कर ॥ ५४॥ सुविहिय हिय निझाए ॥ सझाए नधुन सया होसु ॥ निच्चं पंच महब्बय ॥ रकं कुण पायपञ्चकं ॥ ५५ ॥ मुविहित साधुने हितना करनार एवा स्वाध्यायने विषे हमेशां उद्यमवंत था अने नित्य पांच महावतनी रक्षा आत्म समक्ष कर ॥ ५५ ॥ dिiaCERes
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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