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मा जैवो कहेवाय छे. एटला माटे ज शास्त्रकार महाराजा कहे छे के, निरंतर वारंवार श्रावक वर्ग सामायिकने करे अने सामायिक करनारने साधुना समान कहेल छे, तेथी ज सामायिकना अंदर रहेल जीवथी देवने स्नात्रादिक करावयुं तेमज पूजनादि सी करवुं, विगेरे द्रव्य पूजा करवाने माटे निषेध करेल छे. कारण के सामायिकरूप भावस्तवने विषे द्रव्यस्तवनुं करनुं ते अनौ- र चित्य कहेवाय छे, वळी सामायिकनी दुर्लभता कहेल छे. कधुं छे के
सामाइयसामरिंग, देवावि चिंतंति हिययमज्झमि, जइ हुइ मुहुत्तमेगं, ता अह्म देवत्तणं सहलं ॥ १ ॥
भावार्थ:- देवताओ जे छे ते पण सामायिकनी सामग्रि पोताना हृदयने विषे निरंतर चिंतवे छे, अने विचारे छे के
जो एक मुहूर्त्त मात्र पण अमोने सामायिक उदय आवे तो अमारुं देवपणुं जे ते साफल्य भावने पामे, एवा प्रकारे भावना राखे छे. त्यारे मनुष्य वर्गने तो मानुष्य भवादिकनी सामग्री तेम ज आर्य क्षेत्रादि देवगुरु धर्मनी प्राप्ति थयेली होवाथी सामायिक करवाथी महान् लाभ थाय छे. हवे इहां सामायिक करनारना वे भेद कला छे. १ ऋद्धिवालो, २ निर्धन. तेने विषे जे ऋद्धि रहित छे ते साधु समिपे अगर जिनमंदिरे उपाश्रय होय त्यां तथा पौषधशालाने विषे, तथा पोताना घरने नुं विषे, अथवा निर्विघ्न स्थानने विषे सामायिकने करे अने जे समृद्धिवालो छे ते राजादिक होय, अगर कोइ शेठ-शाहुकार, महान् ऋद्धिवाला होय, तेमने तो पोताना घरथकी ज महा आडंबरथी' नीकली उपाश्रये आवी सामायिक करवुं ते ज उचित छे. कारण के तेम करवाथी देखनारा लोको जैन धर्मनी प्रशंसा करे के जैनशासनना अंदर आवा महर्द्धिक लोको पण छे, त के जेओ महान् आडंबरथी धर्म कर्मने करे छे. एवी भावना युक्त थइ अनुमोदन करी तेम ज भवितव्यता अने हलवा कर्मी
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