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________________ चौमासी व्याख्यान॥ भावार्थ:-एवी रीते देव, गुरु, धर्म आ त्रणेनी जे माणस निंदा करनार होय छे, ते महा घोरातिघोर पातकी कहेवाय छे अने एवा महान् पातकी जीवोना संसर्ग मात्रथी पण बीजा जीवो मलीन थाय छे. आq जाणी भवभीरु जीवोये देव गुरु धर्मनी निंदा करवी नहि. तेम ज परनी निंदा पण करवी नहि, कारण के परनिंदामां पाप छे.. काठीयार्नु स्वरूप॥ ॥५६॥ . परनिंदामहापापं, गदंति मुनयः खलु । इह लोके पराभूतिः, परत्र नरको यथा ॥१॥ भावार्थः-मुनि महाराजाओ परनी निंदा करवी ते महापापभूत गणे छे. परनी निंदा करनारा जीवो इहलोकने विषे पराभव पामे छे अने परलोकने विषे नरकगति मेळवे छे. माटे ज सुज्ञ जीवोये परनी निंदानो त्याग करी पोताना आत्मानी ज निंदा करवी ते सारभूत छे, कयुं छे केः यतः आत्मनिंदासमं पुण्यं, न भृतं न भविष्यति । परनिंदासमं पापं, न भूतं न भविष्यति ॥२॥ भावार्थ:-भूत, भविष्य, वर्तमान, आत्रणे कालने विषे पोताना आत्मानी निंदाना करवा समान बीजं एक पण पुन्य नथी अने परनी निंदा करवाना समान भूत, भविष्य, वर्तमानकालने विषे बीजुं एक पण पाप नथी. श्रीमान शास्त्रकार महाराजाओये, भव्य जीवोनी भूलो सुधारी सदमार्गने विषे स्थापन करवा माटे अनेक ग्रंथोमां देव गुरु धर्मनी निंदाने त्याग करवा माटे अने स्वश्लाघा परनिंदाना निवारण करवा माटे बहु ज बोध आलेखेल छ, माटे 4卐yay卐卐卐A卐! ॥५६॥
SR No.034170
Book TitleChaumasi Vyakhyan Bhashantar Tatha Ter Kathiyanu Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherJain Sangh Boru
Publication Year1936
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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