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________________ अपि च. ।। ५५ ।। दिट्ठो सुओवदोसो / परस्स न कयाइ सो कहेयव्वो । जिणधम्माहिरयेणं, पुरिसेणं महिलिया एवा ॥ ३ ॥ भावार्थ:-- जैन धर्मने विषे जे पुरुष अगर स्त्री रक्त होय, तेमणे परनों दोष दीठो होय, अगर सांभल्यो होय, तो पण पोताना मुखथी कोइना पासे कहेवो नहि. अपरं च व्या लोगो कुडिलसहावो, परदोसग्गहणनिययतत्तिलो । अज्जवजणमच्छरिओ, दुग्गहहियओपठो य ॥ ४ ॥ भावार्थ:- आजकालना अंदर केटलोक जनसमुदाय कुटिल स्वभावनो थइ, पोते दुषित छतां पोताना गुण गाइ, परनी निंदा करनारो, तेम ज सरल जीवोना उपर इर्ष्याने धारण करनारो, तेम ज दुष्ट मनवालो होय छे अने कोइपणं प्रकारे तेनुं कुटिलाइ करनारुं मन दुनियाने जाणी शकवामां आवतुं नथी, एवा घणां लोको वर्त्तमान समयमां मळी आवे छे, अर्थात् परनी निंदा अने पोताना आत्मानी प्रशंसा करनारा अत्यारे घणां जोवामां आवे छे. आ जाणी दुनियाना जीवोनी तेम ज देव गुरु धर्मनी निंदा करवी नहि, छतां करे छे तो महा विटंबनाने पामे छे. चौमासी व्याख्यान ॥ यतः बोधिबीजं नो मुक्तिर्न स्वर्गः सत्कुलं नहि । शुक्लद्रव्यस्य नो लब्धि-र्देवनिंदापरस्य तु ॥ १ ॥ भावार्थ:- देवनी निंदा करनारा जीवोने बोधिवीजनी प्राप्ति थती नथी, तेम ज मुक्तिनी पण प्राप्ति थंती नथी, तेम ज स्वर्ग पण मलतुं नथी अने सारा कुलने विषे जन्म पण प्राप्त थतो नथी अने सारं द्रव्य पण मळी शकतुं नथी. 甄 र स्वरूप ॥ 254 55 51 ठी तेर काठीयानुं या ॥ ५५ ॥
SR No.034170
Book TitleChaumasi Vyakhyan Bhashantar Tatha Ter Kathiyanu Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherJain Sangh Boru
Publication Year1936
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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