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________________ अन्धकार की जीवनी। साधुओं के निमित्त ही होता है, सो मुझको वही पानी पीना पडता है। कारण यह है कि मैं सदासे अपनी धारणा मुजब व्रत रखता आया हूँ। जब मारबाड़ में मैंने जावजीवका सामायिक उच्चारण किया, उस समय इन्द्रियोंके विषय भोगने का त्याग किया, परन्तु कारण पड़े तो किसी गृहस्थको अपनाकारण बता देना, और जब मैं किसी जगह मौका पड़े अथवा ध्यानादिक करू तो एक जगहसेहीलायकर दूध पान करू और अनादिक. नखाउ', क्योंकि पहले मुझे ध्यानका परिचय था। पांचवां, साधु लोग अन्य मतके ब्राह्मण लोगोंसे विद्या पढ़ते हैं, तो उसको गृहस्थों से द्रव्य दिलाते हैं, ये कोई व्रत में बाकी नहीं रखते हैं, परन्तु मुझसे जहां तक बना अन्यमतके साधुओंसे पढ़ता रहा कि जिससे धन न दिवाना पड़े, परन्तु अजमेर में आनेसे किंचित् धन पढ़नेके लिये दिवाना पड़ा। यह पांचमा कारण है। " इत्यादि अनेक तरहके कारण मुझको दीखते हैं। इसी वास्ते मैं कहता हूं। क्योंकि जिनआज्ञाअपनेसे नपले तो जो वीतरागने मार्ग परूपा हैं उसको सत्य सत्य कहना और उसकी श्रद्धा यथावत् रखना । जो ऐसा भी इस कालमें बनजाय, और पूरा साधुपना न पले तो भी शुद्ध श्रद्धा होनेसे आगेको जिन धर्म प्राप्त होना सुगम हो जायगा । इसलिये मेरा अभिप्राय था सो कहा, क्योंकि मैं साधु बनं तो नहीं तिरूगा किन्तु साधुपना पालंगा तो तिरूगा। * * * * - “उपर लिखे कारणोंसे मैं अपनेमें यथावत् साधुपना नहीं मानता, क्योंकि श्रीयशविजयजी महाराज 'अध्यात्मसार में लिखते हैं किजो लिंग के रागसे लिंगको न छोड़ सके वह संवेग पक्षमें रहें, निष्कपट होकर जो कोई शुद्ध चरित्रका पालनेवाला, गीतार्थ, आत्मार्थी निष्कपट-क्रिया करता हो, उसकी विनय, वेयावञ्च, भक्ति करे। सो मेरे भी चित्तमें यही अभिलाषा रहती है कि जो कोई ऐसा मुनिराज मिले तो मैं उसकी सेवा, टहल, बंदगी करू, न तु दम्भी कपटियोंके साथ रहनेकी इच्छा है। और जो श्री जिनराजकी आज्ञासे संयुक्तसाधु, साध्वी,श्रावक, श्राविका हैं उस चतुर्विध संघका दास हूं। और जिनधर्मके लिङ्गसे मेरा राग Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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