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________________ पान अर्थात् आहारको करते हो और सियले योकि बनात, कम्बल, और पुस्तक पन्नाका भी अपनी निश्रामें (अधीन) ग्रन्थकार की जीवनी। एक पात्र रखते हो उसीमें रोटी, दाल, खोच, साग, पान अ सर्व वस्तु साथ लेते हो, और एक दफे ही आहार करते हो, में उनकी एक लोमड़ी से हीशीतकाल काटते हो, क्योंकि लोकार, अरंडी आदिका आपको त्याग है। और पुस्तक , आपको संग्रह नहीं है अर्थात् बांचनेके सिवाय अपनी निश्राम नहीं रखते हो। और प्रायः करके आप वस्ति के बाहर अर्थात रहते हो और हर सालमें महीना, दो महीना अथवा चार महोना शहरमें रहते हो उस शहरके तोल ( बजन ) का एक सेर दूधक मि और कुछ आहारादि नहीं लेते हो। जिन दिनोंमें दूध पीते हो उन दिन भी सातदिनों में एक दिन बोलते हो, और बाकी मौन रहते हो। ऐसे भी महीना, दो महीना, चार. महीना तक रहते हो, और मौनमें ध्यान भी करते हो इत्यादि आपकी वृत्ति प्रत्यक्ष देखते हैं, जो प्रायः करके अन्य साधुओंमें नहीं दिखती हैं। फिर आप कहते हो कि “ मेरेमें साधुपना नही है" इससे हमको ताजुब होता हैं। ____ "समाधान:-भो देवानुप्रियों, यह जो तुम मेरी वृत्ति देखते हो सो ठीक हैं । परन्तु मैं मेरी शक्ति मुबाफिक जितना बनता हैं उतना करता हूं। परन्तु वीतराग का मार्ग बहुत कठिन है। देखो श्री आनन्दघनजी महाराज १४ वें भगवानके स्तवनमें कहते हैं कि; "धार तरवारनी सोहली, दोहली चौदमा जिन तणी चरण सेवा । धारपर नाचता देख बाजीगरा, सेवना धार पर रहे न देवा ॥" ऐसे सत पुरुषोंके वचनको बिचारता हूं तो मेरी आत्मामें न देखने से और ऊपर लिखे कारणोंसे तथा नीचे भो लिखता हूं उन बातोंसे मैं अपनेको साधु नही मानता हूं. क्योंकि साधुका मार्ग बहुत कठित देखो प्रथम तो साधुको अकेला विचरना मना है। श्री उत्तराध्यय में अकेले विचरनेवालेको पाप-श्रमण कहा है और मैं अकेला फिरता दूसरा, शास्त्रोंमें आदमी सङ्गमें रखने की मनाई है। सो भी पहले देशमें असेंधा होनेसे आदमी रक्खा था, परन्तु अब भी कभी मीको साथ रखना पड़ता है। तीसरा यह है कि गर्म पानी न्तु अब भी कभी कभी आद के गर्म पानी प्रायः करके Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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