SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ] [१३३ बुद्धिमान होय सो अपेक्षासे जितनी बुद्धि पहु'चे उतने ही निक्ष ेपाके भेद करे । क्योंकि देखो इन चारो निक्षेपाके सोलह (१६) भेद होजाते हैं सो भी दिखाते हैं। प्रथम नामनिक्षेप के ही चार भेद हैं, एक तो नामका नाम, दूसरा नामकी स्थापना, तीसरा नामका द्रव्य, चौथा नामका भाव | इसरीतिसे जो इस स्याद्वादसिद्धान्त के जाननेवाले, गुरु चरणसेवी, आत्मअनुभवसे षद्रव्य के विचार करनेवाले, आप जानते हैं और दूसरे जिज्ञासुओं को समझाते हैं, न कि दुखगर्भित, मोह गर्भित वैराग्यवाले भेषधारी जैनीनाम धरानेवाले । सो यह निक्षेपा बुद्धि अनुसार अनेक रीतिसे होते हैं और अनेक चीजके ऊपर उतरते हैं । परन्तु इस जगह ग्रन्थ बढजानेके भयसे किसी पर उतार कर न दिखाया, केवल जो मुख्य प्रयोजन था सो ही लिखाया है, सो मैंने भी किंचित भेद दिखाया है । और जो बुद्धिमान होय सो और भी भेद कर लें । इसरीति से चार निक्षेपा पूर्ण करके शब्द-नय कहा । I 1 ६ समभिरूढ नय | अब समभिरूढ नय कहते हैं कि जिस बस्तुका कितना ही गुण तो प्रगट हुआ हैं और कितनाही नहीं हुआ, परन्तु जो गुण प्रगट नहीं हुआ है सो गुण अवश्यमेव प्रगट होगा, इस लिये उस बस्तुको सम्पूर्ण माने। क्योंकि देखो जैसे केवलज्ञानी १३ वें गुणठानेवालेको सिद्ध कहे और १३ वें गुणठानेवाला सिद्ध है नहीं, किन्तु शरीर समेत हैं, परन्तु आयुकर्म क्षय होने से अवश्यमेव सिद्ध होगा, इसलिये उसको सिद्ध कहा, क्योंकि यह समभिरूढनयवाला एक अंश ओछी बस्तु को भी सम्पूर्ण बस्तु कहे, इस रीति से समभिरूढनय कहा । ७ एवंभूत नय । अय एवंभूत नय कहते हैं कि जो बस्तु अपने गुणमें सम्पूर्ण होय और अपने गुणकी यथावत् क्रिया करे, उसीको पूर्ण वस्तु कहे, क्योंकि देखो मोक्ष स्थान पहुचे हुए जीवकोही सिद्ध कहे, अथवा स्त्रो पानीका Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy