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________________ १३२ ] भावनिक्षेप | आकार और लक्षणं अनु अब भावनिक्षेपा कहते हैं कि जिसका नाम, गुण-सहित बस्तु में मिले, उस वक्तमें भावनिक्षेपा होय, क्योंकि: योगद्वारसूत्रमें कहा है कि-“उवओगो भाव” । इसलिये पूजा, दान, तप, शील, क्रिया, ज्ञान सर्व भाव निक्षेपा सहित होय तो लाभकारी है। [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर। इस जगह कोई विवेकशून्य बुद्धिबिचक्षण ऐसा कहे कि मनपरि णाम दृढ़ करके करे उसीका नाम भाव है। ऐसा जो कोई कहता है वह सुखकी वांछाका अभिलाषी है, क्योंकि मिथ्यात्वी भी सुखकी वांछाके वास्ते मनको दृढ़ करके करते हैं, तो वह मनका दृढ़ करना सो भाव नहीं, इस जगह तो सूत्र अनुसार विधी और वीतराग की आज्ञामें हेय और उपादेय कहा है। उसकी परीक्षा करके अजीव, आश्रव, बन्ध के उपर हेय — त्याग भाव, और जीवका स्वगुण सम्बर, निर्जरा, मोक्ष, उपादेय अर्थात् ग्रहण करने का भाव । और रूपी गुण है तिसको द्रव्य जानकर छोडे, जैसे मन, बचन, काय, लेश्यादिक सर्व पुद्गलीक रूपी गुण जानकर छोड़े। और ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, ध्यान प्रमुख जीवका गुण सर्व अरूपी जानकर ग्रहण करे, उसका नाम भावनिक्षपा हैं, इस रीति से यह चार निक्षेपा कहे । यह चारों निक्षेपा वस्तुका स्वधर्म है । सो हरेक वस्तुमें इस स्याद्वाद सिद्धान्त के जाननेवाले अनेक रीति से अनेक निक्षेपा उतारते हैं। श्री अनुयोगद्वारजीमें ऐसा कहा है कि:" जत्थ य जं जाणिज्जा निक्खेवे निक्खिवै निरवसेसं । जत्थ य नो जाणिज्जा चोक्कयं निक्खवे तत्थं” ॥१॥ इस रीति से निक्षेपा के अनेक भेद हैं, परन्तु अनेक भेद न आवे तौभी यह चार निक्षेपा बस्तु का स्वधर्म अवश्यमेव उतारे । सूत्र में ४२ भेद निपेक्षा के कहे हैं। और फिर ऐसा कहा है कि जो और Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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