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________________ द्रव्यानुभव-रक्षाकर।] [१३१ में कह सक्त हैं कि श्री महावीरस्वामीका पावापुरीक्षेत्रमें दव्य-शरीर है। स रीतिसे जिस चोज़के ऊपर क्षेत्रअपेक्षासे उतारे उसके पर ही उतर सक्त हैं। परन्तु अपेक्षा रख करके, न तु निरपेक्षासे । ‘ऐसे ही कालके ऊपर कि-जिस बक्तमें श्रीऋषभदेवस्वामीका निर्वाण हुआ उस कालको श्री ऋषभदेव स्वामीके शरीरके संग लगावें। उसको काल अपेक्षासे शरीर कहेंगे। सो यह कोलका भी शरीर हरएक वस्तुके ऊपर उतरता है, इसरीतिसे ज्ञशरीर व्यनिक्षेपा कहा। . , अब भव्यशरीर-व्यनिक्षपा कहते हैं कि जब तीर्थंकर महाराज माताके पेटमेंसे जन्म लेकर बाल अवस्थामें रहते थे उनका जो शरीर था उसको भव्यशरीर-दृव्यनिक्षपा कहते थे। अथवा किसी भव्यजीवको बालअवस्थामें किसी आचार्यने ज्ञानसे देखा कि यह भव्यशरीर कुछ दिनके बाद भाव करके देवका स्वरूप जानेगा, उसको भी भव्यशरीर व्यनिक्षेपा कहते हैं। अथवा किसी शख्सने अच्छी मट्टीकी हांडी "पुख्ता देखकर कहा कि इसमें मधु (शहद) अच्छी तरहसे रक्खा जायगा, इसलिये इस हांडीको मधु रखनेके वास्ते जावता. (जतन) से रखना चाहिये, तो उस हांडीको मधुकी भव्य-व्य-हांडी कहेंगे। अथवा किसी घोड़ा.वा हाथीको छोटासा देखकर उसके चिन्होंसे बुद्धिमान विचार करते हैं कि कुछ दिनके बाद यह घोड़ा वा. हाथी सवारीके वास्ते बहुत उम्दा (अच्छा ) होगा, उसको भी द्रव्यभव्य शरीर कहेंगे। सो ये भी भठ्यशरीर दृष्यनिक्षेपा हरेक बस्तुके ऊपर उतरता है । और क्षेत्र, काल करके भी यह भव्यशरीर व्यनिक्षेपा उतरता है सो -शरीरमें जो रीति कही है उसी रीतिसे बुद्धिमान जान लेवे। तीसरा तव्यतिरिक्त व्यनिक्षे पाके अनेक भेद है, सो उन अनेक को जो इस दृश्यानुयोगके जाननेवाले अनेक रीति, अनेक भपेक्षासे जबामुको समकाय सके हैं, इसरीतिसे व्यनिक्षपा कहा। ... Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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