SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ द्रव्यानुभव - रत्नाकर। १३० ] सो आगमसे द्रव्यनिक्षेपा तो उसको कहते हैं कि जैसे जिनागम अथवा व्याकरण आदि सूत्र तो पढ़ लिया और उसका भावार्थ अर्थात् तात्पर्य्य न जाना, अथवा देशना अर्थात् दूसरोंको उपदेश दे रहा है, परन्तु अपनेमें उस उपदेशका उपयोग नहीं, इसरीतिसे इसके भी बुद्धिमान अपेक्षाले अनेक भेद कह सक्ता है । और जिज्ञासुको भी समझाय सक्ता है। दूसरा भेद नोआगम करके द्रव्यनिक्षेपा है, उसके तीन भेद है। एक तो ज्ञशरीर (देह), दूसरा भव्यशरीर, तीसरा तद्व्यतिरिक्त । सो ज्ञशरीर द्रव्यनिक्षेपा इस रीति से है कि-जैसे तीर्थंकर आदिकों का जिस वक्त निर्वाण होय उस वक्तमें वो तोर्थंकरोका जीव तो सिद्धक्षेत्रमें पहुंचे और वह शरीर जब तक अग्निसंस्कार न होय तब तक शशरीर है । अथवा किसी मट्टोके वर्त्तनमें घी आदिक रखा होय फिर वो घी तो उसमेंसे निट जाय अर्थात् न रहे तब उसको घीका बर्त्तन बोले तो वो भी बर्त्तन घीका शबर्तन है । अथवा कोई भव्य जीव देवका स्वरूप अथवा अपना आत्मअनुभव स्वरूप जानता होय और वह शरीर छोड़कर जीव तो दूसरे भवमें जाय और वह शरीर पड़ा रहे, उसको भी ज्ञशरीर द्रव्य निक्षेपा कहेंगे । इसरोतिसे जिस जीव वा अजीव अथवा देवता, नारकी, मनुष्य, तिर्यंच आदिमें इस दुव्य निक्ष पा- इशरीर को वुद्धिमान स्याद्वादसिद्धान्तके रहस्य जाननेवाले गुरुचरणसेवी आत्मअनुभवके रसीया · घटाय सक्त हैं। और फिर इस शशरीर द्रव्यनिक्ष पाको क्षेत्रसे और कालसे भी उतारते हैं। सोभी दिखाते हैं कि- जैसे श्री ऋषभ देवस्वामी अष्टापदजी पहाड़के ऊपर मोक्ष पधारे थे। सो उस क्षेत्र में जब तक उनका शरीर को अग्निसंस्कार न हुआ तबतक उस क्षेत्रको 1 अपेक्षा क्षेत्र ऋषभदेवस्वामीका दुष्यन्तशरीर है। ऐसे ही . श्रीमहावीरस्वामीका पाधापुरी क्षेत्रमें निर्माण हुआ था और उस जगह जबतक भगवतके शरीरका अग्नि संस्कार न हुआ तबतक पावापुरी Scanned by CamScanner
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy