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________________ [ द्रव्यानुभव-रत्नाकर ७४ ] कोई मनुष्यमें; नाना प्रकार के सुख अथवा दुःख भोगते हैं; इस रीति से आगम, अनुमान, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अनेक व्यवस्था होरही है, फिर तुम्हारी एक पक्ष क्योंकर घट सक्ती है । [ उत्तर ] भो देवानुप्रिय जो तुमने अद्वैत मतबादीके मध्ये कहा कि उसका अद्वैतबाद सिद्ध हो जायगा, सो वह अद्वैतबादी तो एकान्त करके एक पक्ष को लेता है, इसलिये उसका अद्वैत सिद्ध नहीं होता, और उसका खण्डन मण्डन "स्याद्वादानुभवरत्नाकर” दूसरे प्रश्नके: उत्तर में बिस्तारपूर्वक है वहांसे देखो। और श्री बीतराग सर्वज्ञदेवका कहा हुआ जो जिनधर्म उसमें कहा हुआ स्याद्वाद सिद्धान्त अर्थात् एकान्त पक्षको छोड़कर अनेकान्त पक्ष अङ्गीकार है, इसलिये एकपक्षभी बनता है और अनेक पक्षभी बनता है; दूसरा जो तुमने तीन प्रमाण देकर जुदी २ व्यबस्था बताई, उसमें तुम्हारी बुद्धिमें यथावत जिन आगमके रहस्य की प्राप्ति नहीं हुई, अथवा सत्य उपदेश दाता गुरुकी सोहबत तेरेको नहीं हुई, इसलिये तेरेको ऐसी तर्क उठी, और एक पक्ष समझमें नहीं आई, सो अब तेरेको इस स्याद्वादका रहस्य समझाते हैं? सो तूं समझ, कि निश्चय नय अर्थात् निःसन्देह शुद्ध व्यबहार करके द्रव्यार्थिक नयगमनयकी अपेक्षासे सर्व जीव सिद्धके समान हैं, जो सर्वजीव एक समान न होते तो कर्मक्षय करके सिद्धभी कदापि न होते, इसलिये सर्व जीबकी सत्ता एक है। जो तुम ऐसा कहो कि सर्व जीवकी सत्ता एक है तो अभव्य मोक्ष क्यों नहीं जाय । इस तेरी शंका का ऐसा समाधान है कि -अभव्य जोवका कर्म चीकना अर्थात् पलटन स्वभाव नहीं, इसलिये वो मोक्ष नहीं जाता, परन्तु आठ रुचक प्रदेश सर्व जीवोंके मुख्य हैं, उन आठ रुचक प्रदेशोंमें कर्मका संयोग नहीं होता सो वे आठ रुचक प्रदेश सबके निर्मल होते हैं, चाहे तो भव्य होय और चाहें अभव्य होय, इसलिये उन आठ रुचक प्रदेशोंको अपेक्षा नयगम नय वाला निसन्देह शुद्ध व्यवहारले द्रव्यपने में भव्य और अभव्य सर्वको सिद्धके समान मानता है । दूसरा और भी सुनोंकि सर्व जीब चेतना लक्षण करके एक सरोखा है, इसलिये एक, अनेक पक्ष Scanned by CamScanner जीवमें
SR No.034164
Book TitleDravyanubhav Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChidanand Maharaj
PublisherJamnalal Kothari
Publication Year1978
Total Pages240
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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