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________________ तत्त्वार्थ सूत्र ये चार भेद हैं। बहु-बहुविध-क्षिप्रा-ऽनिश्रिता-ऽसंदिग्ध-ध्रुवाणां सेतराणाम् ॥१६॥ अर्थ - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव - ये छ: तथा (सेतराणामप्रतिपक्ष सहित) अर्थात् इनसे विपरीत, एक, एकविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव - ये छ: इस तरह कुल बारह प्रकार से अवग्रह, ईहा आदि रूप मतिज्ञान होता है। अर्थस्य ॥१७॥ अर्थ - अवग्रह, ईहा, अपाय और धारण – इन चारों से अर्थ (वस्तु का प्रकट रूप) ग्रहण होता है। व्यञ्जनस्यावग्रह ॥१८॥ अर्थ - व्यंजन (अप्रकट रूप पदार्थ) का केवल अवग्रह ही होता है। न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१९॥ अर्थ - चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता । श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेक-द्वादशभेदम् ॥२०॥ अर्थ - श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है । जिसके दो, अनेक तथा बारह भेद होते हैं । द्विविधोवधिः ॥२१॥ अर्थ - अवधिज्ञान दो प्रकार के हैं । १. भवप्रत्यय और २. गुणप्रत्यय या क्षायोपशमिक ।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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