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________________ तत्त्वार्थ सूत्र २१ अर्थ - सौधर्म, ऐशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, नव ग्रैवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध इनमें वैमानिक देव रहते हैं । स्थिति-प्रभाव-सुख- द्युति - लेश्या - विशुद्धीन्द्रियाऽवधि-विषयतोऽधिकाः ॥ २१ ॥ अर्थ – आयु, सामर्थ्य, सुख, दीप्ति, लेश्या - विशुद्धि, इन्द्रिय, विषय और अवधिज्ञान का बल - ये सातों ऊपरऊपर के देवों में अधिक अधिक होते हैं । गति - शरीर-परिग्रहा - ऽभिमानतो हीनाः ॥२२॥ अर्थ - गति, शरीर, परिमाण, परिग्रह और अहंकार - ये चारों ऊपर-ऊपर के देवों में हीनहीन होते हैं । पीत-पद्म- शुक्ल - लेश्या द्वि-त्रि - शेषेषु ॥ २३ ॥ अर्थ - दो, तीन और शेष देवलोक में क्रमशः पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या होती है । प्राग्-ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः ॥२४॥ अर्थ - ग्रैवेयक के पहले-पहले देवलोकों में कल्प की व्यवस्था होती है। ब्रह्मलोका - Sऽलया लोकान्तिकाः ॥ २५ ॥ अर्थ - लोकान्तिक देवों का निवास स्थान पाँचवां ब्रह्मलोक है । सारस्वता-ऽऽदित्य-वह्नि - अरूण - गर्दतोय- तुषिताSव्याबाध - मरुतो ऽरिष्टाश्च ॥ २६ ॥
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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