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________________ तत्त्वार्थ सूत्र वाय्वन्तानामेकम् ॥२३॥ अर्थ - वायुकाय पर्यन्त जीवों की एक ही इन्द्रिय ही होती है। कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२४॥ अर्थ - कृमि, चींटी, भंवरा और मनुष्य आदि की क्रमशः एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है। संज्ञिनः समनस्काः ॥२५॥ अर्थ - मन वाले जीव संज्ञी होते हैं। विग्रहगतौ कर्म योगः ॥२६॥ अर्थ – विग्रहगति में कार्मण योग रहता है। अनुश्रेणि गतिः ॥२७॥ अर्थ – गति, श्रेणि के अनुसार होती है। अविग्रहा जीवस्य ॥२८॥ अर्थ - मुक्त जीव की गति विग्रहरहित होती है। विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः ॥२९॥ अर्थ - संसारी जीव की गति विग्रहरहित और विग्रह सहित होती है। उसमें विग्रहवाली गति चार समय से पहले अर्थात् तीन समय तक होती है। एक समयोऽविग्रहः ॥३०॥ अर्थ - एक समयवाली गति विग्रहरहित होती है। एकं द्वौ वा-ऽनाहारकः ॥३१॥
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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