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________________ तत्त्वार्थ सूत्र ऽसिद्धत्व-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषभेदाः ॥ ६ ॥ अर्थ - औदयिक भाव के इक्कीस भेद होते हैं - चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और छः लेश्या । जीव- भव्या- ऽभव्यत्वादीनि च ॥७॥ अर्थ - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन तथा अन्य भी पारिणामिक भाव हैं । उपयोगो लक्षणम् ॥८॥ अर्थ - जीव का लक्षण उपयोग है । सद्विविधो ऽष्ट- चतु- र्भेदः ॥९॥ अर्थ - वह उपयोग दो प्रकार का है - ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है । संसारिणो मुक्ताश्च ॥१०॥ अर्थ - जीव के दो भेद होते हैं, संसारी और मुक्त । समनस्का-ऽमनस्काः ॥११॥ अर्थ - संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं, मन सहित और मन रहित । संसारिणस्त्रस-स्थावराः ॥१२॥ अर्थ - पुनः संसारी जीवों के दो भेद हैं, त्रस और स्थावर । पृथिव्यम्बु- वनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ अर्थ - पृथ्वीकाय, अपकाय, वनस्पतिकाय ये तीन —
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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